पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४३२

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सुनत राम द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । अभिषेक सुहावा । बाज गहागह अवध बधावा॥ राम-सीय-तन सगुन जनाये । फरकहिँ मङ्गल अङ्ग सुहाये ॥२॥ रामचन्द्रजी के राज्याभिषेक को सुनते ही अयोध्या में सुन्दर धुम के साथ बधाई के बाजे बजने लगे। रामचन्द्र और सीताजी के शरीर में सगुन मालूम होते हैं, सुहावने महल अङ्ग फर- फने लगे।॥२॥ जिल हेतु अवतार हुआ है, उस कार्य के करने का उपयुक्त समय पाया जान कर महा. राज को मालीक शकुन हुए हैं। पुलकि सप्रेम परसपर कहही । भरत आगमन. सूचक अहहीं । भये बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति मैंट प्रिय केरी ॥३॥ प्रेम से पुलकित हो कर आपस में कहते हैं कि ये सगुन भरत के श्राने की सूचना देने. वाले हैं। उनको मामा के घर गयेबहुत दिन हुए; बड़ी चिन्ता है, इन शकुनों ले विश्वास होता है कि प्यारे (भरत) ले भेट होगी ॥३॥ 'अवसेर' शब्द संस्कृत का है । प्रसङ्गानुकूल इसके कई एक अर्थ हैं। जैसे (१) विलय देर, अटकाव । (२) प्रतीक्षा, इन्तजार । (३) उचाट, ब्यमता, चिन्ता । (४) हैरानी, दुःस्त्र । भरतसरिस प्रिय को जग माहीं । इहइ सगुन-फल दूसर नाहीं । रामहि बन्धु सोच दिन राती । अंडन्हि कमठ हृदय जेहि भाँतो ॥४ भरत के समान मुझको संसार में कौन प्यार है ? बस, सगुनों का यही फल है दूसरा नहीं । रामचन्द्रजी को दिन रात भाई का ऐसा सोच है, जिस तरह कछुए का मन अण्डों में लगा रहता है॥४॥ दिन रात रामचन्द्रजी को भाई,भरत का सोच है, इस बात की विशेष से समता दिखाना कि जिस तरह कछुए का मन अपने अण्डों में लगा रहता है 'उदाहरण अलंकार' है। भरत के समान कौन प्यारा है? इस वाक्य में काकोक्ति से भिन्न अर्थ 'कोई प्यारा नहीं है' प्रकट होना 'चक्रोक्ति अलंकार' है। कछुई अपने अण्डो का सेवन नहीं करती। वह सूखे स्थान में अण्डा देकर उसे रेत यो धूल से ढंक कर पानी में चली जाती है और फिर कभी लौट कर अण्डौ के पास नहीं आती ! पर मन उसका अंखों ही पर लगा रहता है, जिससे वह पुष्ट होकर जलि में स्वयम् प्रवेश कर जाते हैं। विनयपत्रिका फे १०३ पद में यही बात कही है कि "वहाँ वहाँ जान छोह छोड़िये, कमठ-मण्ड की नाई।" राजापुर की प्रति में और गुटका में "दउ" पाठ है। दो०-एहि अवसर महल. परम, सुनि रहसेउ रनिवास । सोभत लखि बिधु बढ़त जनु, बारिधि बीचि बिलास ॥१॥ इली समय अतिशय मङ्गल सुन कर रनिवासा प्रसन हुधा I वह ऐसा मालूम होता है मानों चन्द्रमा को देख कर समुद्र में लहरों का आनन्द बढ़ता दुवा शोभित हो ॥ ७ ॥ ,