पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४६६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४०७ देन कहेन्हि माहि दुइ बरदाना । माँगेउँ जो कछु माहि सोहाना ॥ सो सुनि भयउ भूप उर खोचू । छाड़ि न सकहिं तुम्हार सकाचू॥४॥ मुझे दो वरदान इन्होंने देने को कहा था, जो कुछ मुझे अच्छा लगा वह मैंने माँगा। उसे सुन कर राजा के हदय में शोक हुआ है, तुम्हारा संकोच छोड़ नहीं सकते हैं ॥४॥ दो०--सुत सनेह इत बचन उत, सङ्कट परेउ नरेस । सकहु त आयसु धरहु सिर, मेटहु कठिन कलेस ॥४॥ इधर पुत्र का स्नेह और उधर वचम (प्रतिक्षा के ख्याल) से राजा सङ्कट में पड़े हैं। यदि तुम कर सकते हो तो भाशा शिरोधार्य कर के इस कठिन फ्लेश को मिटाओ ॥४०॥ चौ०-निधरक बैठि कहइ कटु बानी । सुनत कठिनता अति अकुलानी जीम कमान बचन सर नाना । मनहुँ पहिष मृदु लच्छ समाना ॥१॥ निःशक (बिना सोच के ) बैठ कर कड़वी वाणी कहती है, जिसको सुन कठोरता भी अत्यन्त घबराती है । जीम रूपी धनुष से वचन रूपी नाना प्रकार के बाण निकल रहे हैं, ऐसा मालूम होता है मानो महाराज दशरथजी मुलायम निलाने के समान हैं ॥१॥ निधड़क कड़वी वाणी सुन कर कठिनता भी घबरा गई, इस कथन में निर्भयता की अत्युक्ति है। जनु कठोर-पन धरे सरीरू। सिखइ धनुष-विद्या बर बीरू ॥ सब प्रसङ्ग · रघुपतिहि. सुनाई । बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई ॥२॥ ऐसा मालूम होता है मानों कठोरपन रूपी उत्तम शूरवीर शरीर धारण कर के धनुष- विद्या सीखता हो । सव प्रसङ्ग रघुनाथजी को सुना दिया, वह ऐसी जान पड़ती है मानों निठुरता शरीर धर कर बैठी हो ॥२॥ मन मुसुकाइ भानुकुल-भानू । राम सहज आनन्द-निधानू ॥ बोले बचन बिगत सब दूषन । मृदु, मञ्जुल जनु बाग-विभूषन ॥३॥ सूर्यवंश के सूर्य रामचन्द्रजी सहज ही आनन्द के स्थान हैं। मन में मुस्कुरा कर सब दुषणों से रहित वचन बोले । उनकी सुन्दर कोमल वाणी ऐसी मालूम होती है मानों वह वाणियों का हार हो ॥३॥ मुस्कुराने में माता के प्रस्ताव पर प्रसन्नता व्यक्षित करने की ध्वनि है। सुनु जननी सोइ सुत बड़-भागी । जो पितु मातु बचन अनुरागी। तनय मातु पितु तोषनिहारा । दुर्लभ जननि सकल संसारा neu हे माता ! सुनिये, वही पुत्र बड़ा भाग्यमान है जो पितामाता के वचनों में अनुरक्त हो। माता-पिता को सन्तुष्ट करनेवाला पुत्र, हे माता ! सम्पूर्ण संसार में दुर्लभ है in