पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४८९

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रामचरित मानस । पहाड़. का पानी बड़ा लागन (शरीर में विकार उत्पन्न करनेवाला) होता है, वन की विपत्ति वखानी नहीं जा सकती ॥१॥ व्याल-कराल बिहँग वन घोरा । निसिचर-निकर नारि-नर-चौरा डरपहिं धीर गहन सुधि आये । मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाये ॥२॥ भीपण सर्प और भयावने पक्षी वन में रहते हैं, अण्ड के झुण्डं राक्षस स्त्री-पुरुषों के चुरानेवाले घूमा करते हैं । हे मृगनयनी ! तुम तो स्वभाव ही से डरपोक हो, धन का याद होते ही धीरवान भी डर जाते हैं ॥२॥ इन वाक्यों में वनयास की असमर्थता व्यक्षित करना अगूढ व्यङ्ग है। हंस-गवनि तुम्ह कानन जोगू । सुनि अपजस मोहि देइहि लागू। मानस-सलिल-सुधा प्रतिपाली । जिअइ कि लवन-पयोधि मराली॥३॥ हे हंसगमनो! तुम वन के योग्य नहीं हो; सुन कर मुझे लोग कलङ्क देंगे। मानसरोवर के अमृत रूपी जल से पली हुई राजहंसिनी क्या खारे समुद्र में जीवित रह सकती है ? ॥३॥ गुटका में 'हस गवनि तुम्ह नहिं वन जोगू' पाठ है नव-रसाल-बन बिहरन-सोला । साह कि कोकिल-बिपिन करीला। रहहु भवन अस हृदय विचारी । चन्द-बदनि दुख कानन भारी age नवीन श्राम के वन में विहार करनेवाली कोयल क्या करोल के जंगल में शोमित हो सकती है ? हे चन्द्राननी ! ऐसा मन में विचार कर तुम घर रहो, वन में बड़ा दुःख है ॥ वक्रोक्ति द्वारा कोयल पर ढार कर यह बात कहना कि सुकुमार और सुखभोगिनी स्त्रियाँ यनवास का दुःख नहीं सइन कर सकती 'विशेष निवन्धना अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है। दो--सहज सुहृद-गुरु-स्वामि सिख, जो न करइ सिर मानि । सो पछिताइ अघाइ उर, अंवसि होइ हित-हानि ॥३॥ जो स्वभाव ही मित्र, गुरु और स्वामी का सिस्त्रावन शिरोधार्य कर नहीं मानता उसके हित की अवश्य हानि होती है और उसका हृदय पश्चात्ताप से भर जाता है ॥६॥ चौ०-सुनि मृदुबचन मनोरथ पियको लोचन ललित भरे जल सिय के। सौतल-सिख दाहक भइ कैसे । चकइहि सरद-चन्द-निसि जैसे ॥१॥ प्यारे के मनोहर कोमल पचन सुन कर सीताजी के सुन्दर नेत्रों में जल भर आये। यह शीतल शिक्षा उन्हें कैसी दाहक हुई, जैले चकई को शरद कालकी चाँदनी रात होती है ११॥ कोमल मनोहर शिक्षापूर्ण प्रीतम के वचन ले दाह का होना अर्थात् अच्छे उद्योग से चुरा फल 'तृतीय विषम अलंकार है। ।