पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४३१ राजापुर की प्रति, सभा की प्रति और गुटको तीनों में 'लोचन ललित' पाठ है, पर कहीं कहीं लोगों ने 'लोचन नलिन' बना लिया है। उत्तर न आव बिकल बैदेही । तजन चहत सुचि स्वामि सनेही । बरबस रोकि बिलोचन बारी । धरि धीरज उर अवनिकुमारी ॥२॥ जानकोजी विकल हो गई; उनसे कुछ जवाब नहीं देते बनता है, उन्हें यह सोच कर बड़ा उद्वेग हुआ कि पवित्र स्नेही स्वामी मुझे त्यागना चाहते हैं। पृथ्वी की कन्या (सीताजी) दृश्य में धीरज धारण कर नेत्रों के जल को ज़ोरावरी से रोका ॥२॥ सीताजी पृथ्वी की कन्या हैं जो अचला, स्थिरा और बसुन्धरा कहलाती है, आपत्काल में उसे धीरज धरना योग्य ही है। कारण के समान कार्य का होना 'द्वितीय सम अलंकार' है। लागि सासु पग कह कर जोरी । छमबि देबि बड़ि अबिनय मारी। दीन्हि प्राणपति माहि सिख सोई । जेहि बिधि मार परम हित हाई॥३॥ सासु के पाँवों में लग कर हाथ जोड़ कर कहती हैं, हे देवि ! मेरी इस बड़ी ढिठाई को क्षमा कीजिये । प्राणनाथ ने मुझे वही शिक्षा दी है कि जिस तरह मेरा परम कल्याण हो ॥३॥ मैं पुनि समुझि दीख मन माहीं । पिय बियोग सम दुख जग नाहीं ॥४॥ फिर मैं मन में समझ कर देखती हूँ तो पति वियोग के समान संसार में कोई दुख नहीं है ॥४॥ 'दोश-प्राननाथ करुनायतन, सुन्दर सुखद सुजान । तुम्ह बिनु रघुकुल-कुमुद बिधु, सूरपुर-नरक समान १६४५ हे प्राणनाथ, दया के स्थान, सुन्दर सुख देनेवाले, सुजान. रघुकुल पो कुमुद-वन के चन्द्रमा ! आप के विना देवलेाक भी नरक के समान है ॥६॥ यहाँ सीताजी का रामचन्द्रजी के प्रति प्रेम रति स्थायीभाव है । रामचन्द्रजी आलम्बन विभाव हैं। उनका माता से बन जाने के लिए विदो माँगना, सीताजी को घर रहने का उपदेश करना उद्दीपन विभाव है। सीताजी का व्याकुल होना, नेत्रों में आँसू यांना, बोल न सकना, साथ चलने के लिए प्रार्थना करना अनुभाव है। चपलता, मोह, विषाद, मावेगादि 'सञ्चारी भाव हैं। कुछ काल आनन्द से जीवन व्यतीत करते करते सहसा अचिन्त्य भावी :वियोग की बात सुन कर जो व्याकुलता हुई है वही भविष्य विप्रयोग कार रस' है। चौ०-मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय. परिवार सुहृद समुदाई । सासु ससुर गुरु सजन सहाई । सुत सुन्दर सुसील सुखदाई ॥१॥ माता, पिता, बहिन, प्रियवन्धु, प्यारे कुटुम्बी, मित्र-मण्डली, साइ ससुर, गुरु, नातेदार, सहायक और सुन्दर सुशील सुख दायक पुत्रं ॥१॥ । ,