पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९७

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दोन ४३८. रामचरित मानस । रहहु तात अस नीति बिचारी । सुनत लखन भये व्याकुलभारी। सिअरे बचन सूखि गये कैसे । परसत तुहिन तामरंस जैसे ॥४॥ हे तात! ऐसी नीति विचार कर घर रहो। यह सुनते ही लक्ष्मणजी बहुत व्याकुल हुए। शीतल वचन सुन कर कैसे सूख गये जैसे पाला के छू जाने से कमल सूख जाता है ॥५॥ -उतर न आवत प्रेम-बस, गहे चरन अकुलाइ । नाथ दास मैं स्वामि तुम्ह, तजहु त कहाँ बसाइ ॥१॥ लक्ष्मणजी से उत्तर नहीं देते वना, प्रेम के अधीन हो घवरा कर पाँव पकड़ लिया और बोले- हे नाथ ! मैं सेवक हूँ और स्वामी है, त्याग देते हैं तो मेरा क्या वश है ॥७॥ साथ चलने का कार्यसाधन विरुद्ध क्रिया से करना कि आप स्वामी है और मैं सेवक हूँ, यदि त्याग देते हो तो क्या वश है 'द्वितीय व्याघात अलंकार' है। चाo-दीन्हिमाहिसिखनीक गोसाँई । लागि अगम अपनी कदराई ॥ नर बर धीर धरम-धुर-धारी । निगम नीति कहँ ते अधिकारी॥१॥ स्वामी ने मुझे अच्छी शिक्षा दी है, परन्तु मुझे अपनी कादरता से वह दुर्गम लगती है। धीरवान श्रेष्ठ मनुष्य जो धर्म के भार को उठानेवाले हैं, वे वेद की नीति के अधिकारी हैं ॥१॥ मैं सिसु प्रभु सनेह प्रतिपाला । मन्दर मेरु कि लेहि मराला ॥ गुरु पितु मातु न जानउँ काहू । कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू ॥३॥ मैं स्वामी के स्नेह से पाला पालक हूँ, क्या हंस मन्दराचल और सुमेरु को उठा सकते हैं ? हे नाथ ! स्वभाव ही से कहता हूँ विश्वास मानिये कि मैं दूसरे किसी को गुरु और माता-पिता करके नहीं जानता ॥२॥ जहँ लगि जगत सनेह सगाई । प्रीति प्रतीति निगम निपुनाई ॥ मोरे सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबन्धु उरअन्तरजामी ॥३॥ जहाँ तक संसार में स्नेह के नाते हैं, जिन्हें वेद, प्रीति और विश्वास की कहते हैं। हे दीनों के सहायक और हृदय के बीच की बात जाननेवाले खामिन् ! मेरे एक श्राप ही गुरु, पिता, माता आदि के उत्कृष्ट गुणों को एक रामचन्द्रजी में स्थापन करना 'तृतीय तुल्पयोगिता अलंकार है धरम नीति उपदेसिअ ताही । कीरति-भूति-सुगति प्रिय जाहो । मन क्रम बचन चरन-रत होई । कृपासिन्धु परिहरिय कि साई ॥४॥ धर्म, और नीति का उपदेश उसको करना चाहिए जिसको कीति', ऐश्वर्य और अच्छी कुशलता .