पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९९

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४१० रामचरित मानस । दो० समुझि सुमित्रा राम सिय, रूप-सुसील-सभाउ। नप सनेह लखि धुनेउ सिर, पापिनि दीन्ह कुदाउ ॥७३॥ रोमचन्द्रजी और सीताजी के सुन्दर रूप, शील और स्वभाव को समझ कर तथा राजा के स्नेह को विचार कर सुमित्रा जी ने सिर धुना कि इस पायिन (केकयो) ने बड़ा कुदाव (बुरा सङ्कट) दिया ॥ ७३ ॥ सुमित्राजी के मन में अनिष्ट की सम्भावना से जो शोक उत्पन्न हुआ वह स्थायीभाव है। रामचन्द्र और सीताजी तथा राजा दशरथ आलम्बन विभाव हैं। रामचन्द्रजी का धन- गमन और राजा की मृत्यु की दृढ़ सम्मावना उद्दीपन विभाव है। मामयं से सोचना कि सीता-राम सुन्दर कप, शील के स्थान और सरल स्वभाव हैं, उनके प्रति केकरी की यह कुटिलता! इसने सब राज्य और सौभाग्य सुख को चौपट कर दिया। इससे दी निश्वास लेकर अकुलाना, सिर पीटना. पछताना अनुभाव है। विषाद, चिन्ता, ग्लानि, उन्माद, निवें। दादि सबारी भावों से बढ़ कर 'करुण-रस' हुआ है। चौ०-धीरज धरेउ कुअवसर जानी । सहज सुहृद बोलो थानी॥ तात तुम्हारि मातु बैदेही । पिता-राम सब भाँति सनेही ॥१॥ कुसमय जान कर धीरज धारण किया और स्वाभाविक हितभरी कोमल वाणी बोलो। हे पुत्र ! तुम्हारी माता जानकी और सब तरह स्नेह करनेवाले रामचन्द्र पिता हैं ॥ १ ॥ अवध तहाँ जहँ राम-निवासू । तह. दिवस जहँ भानु-प्रकासू । जौँ पै सीय राम बन जाहीँ । अवध तुम्हार काज कछु नाहीं ॥२॥ अयोध्या वहीं है जहाँ रामचन्द्र निवास करेंगे. दिन वहीं होता है जहाँ सूर्य प्रकाश करते हैं। यदि सीता और रामचन्द्र वन को जाते हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ काम नहीं है ॥२॥ गुरु पितु मातु बन्धु सुर साँई । सेइअहि सकल प्रान की नाँई ॥ राम प्रान-प्रिय-जीवन जी के । स्वारथ रहित सखा सबही के ॥ ३ ॥ गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी सब की सेवा प्राण के समान करनी चाहिए। प्राणप्यारे रामचन्द्र तो जीव के भी जीवन हैं और बिना प्रयोजन सभी के मित्र हैं॥३॥ पूजनीय प्रिय , परम जहाँ ते । सब मानिअहि राम के नाते । अस जिय जानि सङ्ग बन जाहू । लेहु तात जग जीवन लाहू ॥१ जहाँ तक प्रत्युत्तम प्यारे पूजनीय है, सब का रामचन्द्र ही के नाते मानना चाहिए । ऐसा मन में समझ कर वन जाओ, हे पुत्र ! संसार में जीने का लाभ लो ॥४॥ सुमित्राजी ने पहले विशेष बात कही कि गुरुं पिता मादि की सेवा प्राण की तरह करनी चाहिए । फिर उसका सामान्य से समर्थन करना कि रामचन्द्र जीवन प्राणप्यारे स्वार्थ रहित सब के मित्र हैं । अवश्य उनकी सेवा करो। इतने ही से सन्तुष्ट न हो कर फिर विशेष से पुष्ट करना कि जहाँ तक परम प्रिय पूजनीय हैं, सब को रामचन्द्र के नाते मानना 'विकस्वर अलंकार है।