पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५२७

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रामचरित मानस मिला है भाग कोल भील श्रादि बहुत मिलेंगे। सब पर दया करनी होगी (५) जनक ने तुम्हें संकल्प कर के पाँव धोया था, पर यह मुफ्त में धोना चाहता है इत्यादि।" छौ कृपा सिन्धु बोले मुसुकाई । सोइ कर जेहि तब नाव न जाई। बेगि आनु जल पाय पखारू । होत बिलम्ब उत्तारहि पार ॥१॥ कृपासागर रामचन्द्रजी मुस्कुराकर बोले कि तू वही कर जिससे तेरी नाव न आय। जल्दी पानी लाकर पाँव धो ले और देरी होती है। पार उतार दे ॥१॥ जासु नाम सुमिरत एक बारा । उत्तरहिँ नर भव-सिन्धु अपारा ॥ सोइ कृपाल केवटहि निहोरा । जेहि जग किय तिहुँ पगहुँ ते थोरात एक वार जिनका नाम सुमिरते ही मनुष्य अपार संसार-सागर से पार हो जाते हैं। जिन्हों ने जगत् को तीन परग से भी थोड़ा किया, वही कृपालु रामचन्द्रजी मल्लाह से निहोरा (प्राथना ) करते हैं ॥२॥ जिनका नाम स्मरण करनेवाले अपार भव-सागर पार कर जाते हैं, प्रमाण्ड को जिन्होंने दो परम में नाप लिया, वे गङ्गाजी पार होने के लिए मांझी के एहसानमन्द हो रहे हैं । इस विरोधी वर्णन में 'विरोधाभास अलंकार' है। यही अलंकार कवित-रामायण के इस सवैया में है-"नाम अजामिल से खल कोटि अपार नदी-भव चूड़त काढ़े । जो सुमिरे गिरि मेरु सिला-फन होत अजा-खुर वारिधि वाढ़े ॥ जे पद-पङ्कज तें तुलसी प्रकटी तटिनी जो हरे ध गाढ़े । सो प्रभु है सरिता तरिके कह माँगतनाव करार है ठाढ़े" भगवान के तीनों परग से पृथ्वी नापने की कथा, जिस्किन्धाकाण्ड में २६ वें दोहे के नीचे की टिप्पणी देखो। पद-नख निरखि देवसरि हरषी । सुनि प्रभु बचन माहि मति करषी। केवट राम-रजायतु पात्रो । पानि कठवता भरि लेइ आवा ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी के वचन ( होत विलम्ब उतारहि पास) सुन कर गङ्गाजी की बुद्धि माह की ओर खिंच गई ( उन्हें सन्देह हुआ कि क्या ये परमात्मा नारायण नहीं हैं जिनके चरण से मैं उत्पन्न हुई हूँ ? तर चरण-नखों का निरीक्षण कर) पहचान गई कि अहो ! ये तो मेरे स्वामी हैं, ऐसा समझ कर उनके मन में हर्ष हुआ! रामचन्द्रजी की आज्ञा पा कर केवट कठौते में भर कर पानी ले आया ॥३॥ अति आनन्द उमगि अनुरागा. । चरन-सरोज पखारन लागा ॥ वरषि सुमन सुर सकल सिहाही । एहि सम पुन्य-पुञ्ज कोउ नाहीं ॥४॥ अत्यन्त आनन्द में उमड़ कर प्रेम से चरण कमलों को धोने लगा। समस्त देवता फूल वरला कर उसकी बड़ाई करते हैं कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है ॥४॥ दो०-पद पखारि जल पान करि, आपु सहित परिवार । पितर पार करि प्रभुहि पुनि, मुदित गयउ लेइ पार ॥१०॥ पांव धो परिवार के सहित वह जत (चरणोदक ) पान कर के अपने पितरों को