पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान आयोध्याकाण्ड । ४७३: कहि सिय लखनहिँ सखहि सुनाई । श्रीमुख तीरथराज बड़ाई ॥. करि प्रताम देखत बन बागा । कहत महातम अति अनुरागा ॥२॥ सीताजी, लक्ष्मणजी और मित्र-निषाद से तीर्थराज को बड़ाई श्रीमुख से कह कर सु. नाई। प्रणाम कर के वन और बाग देखते हुए अत्यन्त प्रेम से माहात्म्य कहते जाते हैं ॥२॥ एहि बिधि आइ बिलोको बेनी । सुमिरत सकल सुमङ्गल-देनी । मुदित नहाइ कीन्हि सिव-सेवा । पूजि जथा-विधि तीरथ-देवा ॥३॥ इस तरह श्राकर त्रिवेणी को देखा, जो स्मरण करते ही सम्पूर्ण सुन्दर महलों की देने- वाली हैं। प्रसन्नता से स्नान कर शिवजी का पूजन किया और विधि-पूर्वक तीर्थ के देवताओं की पूजा की ॥३॥ 'वेणी' शब्द अनेकार्थी है, परन्तु यहाँ तीर्थराज के साहचर्य से 'त्रिवेणी तीर्थ' की प्रविधा है। चोटी वा जूड़ा की नहीं। तब प्रक्षु भरद्वाज पहिँ आये। करत दंडवत मुनि उर लाये ॥ मुनि मन मेद न कछु कहि जाई । ब्रह्मानन्द-रासि जनु पाई ॥४॥ तब प्रभु रामचन्द्रजी भरद्वाज-मुनि के पास आये, दण्डवत फरते देख कर मुनि ने हृदय से लगा लिया। भरवाजजी के मन में इतना आनन्द हुआ कि वह कुछ कहा नहीं जाता है । वे ऐसे प्रसभ मालूम होते हैं मानो ब्रह्मानन्द की राशि पा गये होग ब्रह्मानन्द कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जिसकी राशि लगती हो, उसका अनुभव केवल बुद्धि और मन द्वारा होता है । यह कवि कल्पना मात्र 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। फिर रामचन्द्रजी ब्रह्मानन्द की राशि ही हैं, इस प्रकार यह 'उक्तविषया वस्तूप्रेता' कहा जायगा। दो०-दीन्हि असीस मुनोस उर, अति अनन्द अस जानि । लोचन-गोचर सुकृत-फल, मनहुँ किये बिधि आनि ॥१०६॥ मुनीश्वर ने आशीर्वाद दिया, उनके हृदय में ऐसा समझ कर बड़ा आनन्द हुना कि मानों विधाता ने पुण्य के फल को लाफर आँखों के सामने कर दिया हो ॥६०६॥ . चौ०-कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे । पूजि प्रेम-परिपूरन कीन्हे ॥ कन्द मूल फल अङ्कुर नीके । दिये आनिमुनि मनहुँ अमोके ॥१॥ मुनि ने कुशल पूछ कर श्रासन दिया और प्रीति के साथ सत्कार कर के पूर्ण तृप्त किया। अच्छे अच्छे कन्द, मूल, फल और अङ्कर लाकर दिये, वे ऐसे मधुर हैं मानो अमृत के हैं। ॥१॥ कन्द मूलादि का मोठा होना सिद्ध आधार है, परन्तु वे अमृत के कन्द, अमृत के मूल, अमृत के फल और अमृत के प्रडर नहीं हैं । इस अहेतु में हेतु की कल्पना करना 'सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है। . ६०