पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । १७५ जिसको आप आदर दें। मुनि और रघुनाथजी एक दूसरे से नम्रता दिखाते हुए जो वचनों से कहा नहीं जा सकता, वह सुख अनुभव कर रहे हैं ॥२॥ मुनि और रघुनाथजी का परस्पर नवना और एक दूसरे की बड़ाई करना 'अन्योन्य अलंकार है। यह सुधि पाइ प्रयाग-निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी । भरद्वाज आश्रम सब ओथे । देखन दसरथ सुअन सुहाये ॥३॥ यह खबर पाकर प्रयाग-निवासी, ब्रह्मचारी, तपस्वी,मुनि,सिद्ध और उदासी सब सुन्दर दशरथ कुमार को देखने के लिए भरद्वाजजी के आश्रम में आये ॥ ३ ॥ राम प्रनाम कीन्ह सब काहू । मुदित भये लहि लोचन-लाहू॥ देहि असीस परम-सुख पाई । फिरे सराहत सुन्दरताई ॥४॥ रामचन्द्रजी ने सब को प्रणाम किया, वे नेत्रों का लाभ पाकर प्रसन्न हुए। परम आनन्द को प्राप्त होकर आशीर्वाद देते हैं और सुन्दरता सराहते हुए अपने अपने स्थान को लौट आये ॥४॥ दो-राम कीन्ह बिखाम निसि, प्रात प्रयाग नहाइ। चले सहित सिय-लखन-जन, मुदित मुनिहिँ सिर नाइ ॥१०॥ रामचन्द्रजी ने रात्रि में विश्राम किया, प्रातःकाल प्रयागराज (त्रिवेणी) में स्नान कर के सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह के सहित (विवेणी तट से भरद्वाजजी के आश्रम को) चले प्रसन्नतापूर्वक मुनि को सिर नवाया ॥ १० ॥ मुनि से विदा होकर वन को चलना नीचे लिखा गया है 'करि प्रनाम रिषि प्रमुदित हदय चले रघुराई । यहाँ त्रिवेणी तट से मुनि के आश्रम में श्राने को कहा है। कुछ टीकाकारों ने इसके विपरात अर्थ कर डाला; परन्तु प्रसङ्ग-विरोध पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। चौ-राम सप्रेम कहेउ मुनि पाही।नाथ कहिय हम केहि मग जाही। मुनिमन बिहँसि रामसन कहहीं । सुगम सकलं मग तुम्ह कहँ अहहीं ॥१॥ रामचन्द्रजी ने मुनि से प्रेम के साथ कहा कि हे नाथ ! कहिए, हम किस मार्ग से जाँय ? मुनिजी मन में हँस कर 'रामचन्द्रजी से कहते हैं कि आप को सभी मार्ग सुगम है (चाहे जिस रास्ते से जाइये) ॥१॥ साधारण अर्थ के सिवाय श्लेष से कविजी दूसरा गुप्त अर्थ प्रकट करते हैं कि राम- चन्द्रजी ने पूछा-हे मुनिराज ! मुझे लोग अनेक पन्यों से बुलाते हैं। बतलाइये हम उनसे किस पथ से मिलें। इस पर मुनि महत्व सूचक उत्तर देते हैं कि आपके लिए सभी पन्थ सुगम । हैं 'विवृतोक्ति अलंकार' है। पर पाई। .