पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५३५ तरह सोचने योग्य हैं । जो छल (स्वार्थ) त्याग कर हरिभक्त न हो, वही सभी प्रकार सोचने के लायक है॥२॥ सोचनीय नहिँ कोसलराऊ । भुवन चारि दस प्रगट प्रमाज ॥ भयउ न अहइ न अब होनिहारा । भूप भरत जस पिता तुम्हारा ॥३॥ कोशलेन्द्र-दशरथजी लोच करने योग्य नहीं हैं जिनकी महिमा चौदही लोकों में विख्यात है। हे भरत ! जैसे तुम्हारे पिता (यशस्वी) हुए हैं, वैसा राजा संसार में न कोई हुआ, न है और न अब आगे होने ही वाला है ॥३॥ बिधि हरि हरसुरपतिदिसिनाथा । बरनहिँ सब दशरथ गुन-गाथा ॥४ ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र और लोकपाल श्रादि सब दशरथजो के गुणों की कथा वर्णन करते हैं ॥४॥ दोष-कहहु तात केहि भाँति कोउ, करिहि बड़ाई तासु । राम लखन तुम्ह सत्रुहन, सरिस सुअन सुचि जासु ॥१७॥ है पुत्र ! कहा तो सही? उनकी बड़ाई कोई किस तरह कर सकता है जिनके रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुहन के समान पवित्र पुत्र हैं ॥१७३॥ चौ०-सब प्रकार भूपति बड़भागी । बादि बिषाद करिय तेहि लागी । यह सुनि समुझि सोच परिहरहू । सिर धरि राज-रजायसु करहू ॥१॥ राजा सब प्रकार बड़े भाग्यवान थे, उनके लिये विषाद करना व्यर्थ है। यह सुन कर और समझ कर सोच त्याग दो, राजा की भाज्ञा शिरोधार्य करो॥२॥ राय राज-पदं तुम्ह कहूँ दीन्हा। पिता-बचन फुर चाहिय कीन्हा । तजे राम जेहि बचनहि लागी । तनु परिहरेउ राम-बिरहागो ॥२॥ राजा ने तुमको राज्य-पद दिया है, पिता के वचन को सत्य करना चाहिये। जिस वचन के लिये रामचन्द्र को त्याग दिया बरन् रामचन्द्र के विरह की अग्नि में शरीर तज दिया, किन्तु षात नहीं छोड़ी ॥२॥ नृपहि बचन-प्रिय नहिँ प्रियप्राना। करहु तात पितु-बचन प्रवाना । करहु सीस धरि भूप-रजाई । हइ तुम्ह कह सब भाँति भलाई ॥३॥ राजा को वचन प्रिय था किन्तु प्राण प्यारा नहीं था, हे पुत्र ! पिता की वात को प्रमा- णित करो। राजा की आज्ञा सिर पर धारण कर राज्य करों, इसमें तुमको सब तरह भलाई है ॥३॥ परसुराम पितु अज्ञा राखो । मारी मातु लोक सब साखी । तनय जजातिहि जोबन दयऊ । पितु-अज्ञा अघ-अजस न भयऊ ॥४॥ . परशुराम ने पिता की भाशा मान कर माता को मार डाला, सारा लोक इसका साक्षी