पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ७ दोश-कीजिय गुरु आयसु अवसि, कहहिँ सचिव कर जोरि । रघुपति आये उचित जस, तस तब करब बहोरि ॥१७॥ मन्त्री लोग हाथ जोड़ कर कहते हैं कि अवश्य ही गुरुजी की आज्ञा पालन कीजिये। रघुनाथजी के आने पर जैसा उचित समझियेगा तब फिर वैसा कीजियेगा ॥१५॥ चौ-कौसल्या धरि धीरज कहई । पूत पथ्य गुरु आयसु अहई । सो आदरिय करियहितमानी। तजिय बिषाद काल-गति जानी॥१॥ कौशल्याजी धीरज धारण कर कहती हैं, हे पुत्र ! गुरुजी की आज्ञा योग्य और हितकारी है। अपनी भलाई मान कर उसका आदर कीजिये और काल की गति को जान कर विषाद त्याग दीजिये ॥१॥ बन-रघुपति सुरपुर-नरनाहू । तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू ॥ परिजन प्रजा सचिव सब अम्बा। तुम्हहीं सुत सब कह अवलम्बा।।२॥ हे पुन ! रघुनाथजी बन में हैं और राजा स्वर्ग पधारे, तुम इस तरह कचियाते हो । हे तात ! कुटुम्बी, प्रमो, मन्त्री और समस्त माताएँ सब के एकमात्र तुम्ही माधार हो ॥२॥ लखि विधि बाम काल कठिनाई। धीरज धरहु मातु बलि जाई। सिर धरि गुरु आयसु अनुसरहू । प्रजा पालि पुरजन दुख हरहू ॥३॥ विधाता की प्रतिकूलता और काल की कठोरता को देख कर धीरज धरो, माता बलि आती है । गुरु की आज्ञा सिर पर धारण कर वैसा ही करो, प्रजापालन कर पुरवालियों का दुःख दूर करो॥३॥ गुरु के बचन सचिव अभिनन्दन । सुने भरत हिय हित जनु चन्दन ॥ सुनी बहोरि मातु मृदु बानी । सील सनेह सरल रस सानी ॥४॥ गुरुजी के वचन और मन्त्रियों की विनीत प्रार्थना को 'भरतजी ने सुनी, वह उनके हृदय में ऐसी मालूम हुई मान चन्दन हो । फिर माता की शील, स्नेह, सिधाई और प्रीति से सनी कोमल पाणी सुनी ॥४॥ चन्दन लेप में शीतल और खाने में कडवा होता है । हरिगीतिका-छन्द । सानी सरल रस मातु,बानी, सुनि भरत ब्याकुल भये । लोचन सरोरुह खवत सींचत, बिरह उर. अड्डर नये ॥ से दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की। तुलसी सराहत सकल सादर, सीव सहज सनेह की ॥७॥ सिधाई और प्रेम से भरी माताजी की वाणी को सुन कर भरतजी व्याकुल हो गये। उनके कमल नेत्रों से जल बहने लगा, हृदय के विरह रूपी अँखुए को सींच कर उसने नया कर दिया। म