पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६३२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५७१ भरबाज मुनि ने कहा-हे तात! अधिक सोच मत करो, रामचन्द्रजी के चरणों को देख कर सब दुःख मिट जायगा ॥४॥ दे-करि प्रबोध मुनिबर कहेउ, अतिथि प्रेम-प्रिय हाहु । कन्द मूल फल फूल हम, देहि लेहु करि छोह ॥२१२॥ इस तरह उपदेश करके मुनिवर ने कहा कि श्राज आप हमारे प्रेम के प्यारे मेहमान है।। कन्द, मूल, फल, फूल जो हम देखें; कृपा कर स्वीकार कीजिए ॥२१२॥ चौ०-सुनि मुनि बधन भरत हिय साचू । भयउ कुअवसरकठिन सँकोचू ॥ जानि गरुइ गुरु गिरा बहारी । चरन-बन्दि बोले करजोरी ॥१॥ मुनि के वचन सुन कर भरतजी के हृदय में सोच हुआ कि इस कुसमय में कठिन सङ्कोच की बात आ पड़ी। फिर गुरु की बात का गरुमापन समझ चरणों में प्रणाम कर हाथ जोड़ कर बोले ॥१॥ कुअवसर यह कि-स्वामी वन वन फिरें और मैं मेहमानी का आनन्द भागू। अथवा तीर्थराज में मुनि से सेवा लेना धर्म विरुद्ध कार्य है। पर इस से भी बढ़ कर मुनि को पात का महत्व है। सिर धरि आयसु करिय तुम्हारा । परम धरम यह नाथ हमारा ॥ भरत बचन मुनिबर मन भाये । सुचि सेवक सिष निकट बोलाये ॥२॥ हे नाथ | हमारा परम-धर्म है कि आप की ओशा को सिर पर धर कर करें। भरतजी के वचन मुनिवर के मन में अच्छे लगे, उन्हों ने शुद्धाचरण पाले सेवक और शिष्यों को पास में बुलाया ॥२॥ चाहिय कीन्हि भरत पहुनाई। कन्द मूल फलं आनहु जाई । भलेहि नाथ कहि तिन्ह सिर नाये। प्रमुदित निज निज काज सिधाये ॥३॥ . भरतजी की मेहमानी करनी चाहिये, तुम लोग जाकर कन्न, मूल और फल ले प्राओं। बहुत अच्छा स्वामिन् कह कर उन्हों ने मस्तक नवाया और प्रसन्नता से अपने अपने काम के लिये चले ॥३॥ मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता । तसि पूजा. चाहिय जस. देवता । सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई ॥४॥ मुनि को चिन्ता हुई कि हमने बड़े मेहमान को न्योता दिया, जैला देवता हो वैसी पूजा होनी चाहिये । तब उन्होंने सिद्धियों का स्मरण किया-सुन कर अणिमादिक सिद्धियाँ सारी सम्पदा लिये हुए आई और बोली कि-हे स्वामिन् ! जो श्राशा हो हम सा करें ॥४॥ अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व मौर वशित्व यही आठो सिद्धियों के नाम हैं। ऋखि समृद्धि को कहते हैं।