पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६३१

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. डाला ॥१॥ . ५७० रामचरित-मानस । दो०-अजिन-बसन फल-असन महि,-सयन डासि कुस पात । बसि तरु-तर नित सहत हिम, आतप बरषा बात ॥ २११ ॥ छाल के वस्त्र पहनते, फल खाते और धरती पर कुश-पात विछा कर सोते हैं। नित्य वृक्ष के नीचे रह कर जाड़ा, घाम, वर्षा और लू सहते हैं ॥ २११ ॥ ची-एहि दुख दाह दहइ दिन छाती । भूख न बासर नींद न राती ॥ एहि कुरोग कर औषध नाहीं । सोधेउँ सकल विस्व मन माहीं॥१॥ इस दुख के जलन से नित्य मेरी छाती जलती है, न दिन में भूख और न रात में नीद लगती है। इस कुरोग की औषधि नहीं है, मैं ने अपने मन में सारे ब्रह्माण्ड को ढूंद मातु कुमत बढ़ई अघ-मूला । तेहि हमार हित कीन्ह वसूला ॥ कलि-कुकाठ कर कीन्ह कुजन् । गाडि अवध पढ़ि कठिन कुमन्तू ॥२॥ मातो का कुमत पाप का मूल बढ़ई है उस ने हमारे हित को वसुला बनाया । कलह रूपी बुरे काठ का निषिद्ध यन्त्र निर्माण कर और फठिन कुमन्त्र पढ़ कर अयोध्यापुरी में गाड़ दिया ॥२॥ माता केकयी की कुमन्त्रणा पर पाप-मूल बढ़ई का आरोप, अपने हित पर बसुला का आरोप, कलह पर बबुर बहेड़ा आदि बुरे काठ का आरोप, रामचन्द्रजी के वनवास पर . कठिन कुमन्त्र का प्रारोपण इस लिये किया कि बढ़ई कुमार को बसुले से छील कर यन्त्र (पटरी) बनता है और तान्त्रिक उस को आमन्त्रित कर अनिष्ट साधन की इच्छा से जिस गाँव या घर में गाड़ देता है वहाँ भीषण उत्पात मच जाता है। यह समभेद का ढक लिये हुए 'पर- म्परित रूपक अलंकार' है। मोहि लगि यह कुठाट तेहि ठाटा । घालेसि सब जग चारहबाटा ॥ मिटइ कुजोग राम फिरि आये। बसइ अवध नहिं आन उपाये ॥३॥ मेरे लिये यह निन्दित प्रबन्ध उसने रचा, जिसने लव संसार को तहस-नहस करके नष्ट किया। यह कुयोग तो रामचन्द्रजी के लौटने से ही मिटेगा, दूसरे उपायों से अयोध्या नहीं वस सकती ॥३॥ यद्यपि 'बारहघाटा' शब्द को तहस-नहस वा छिन्नभिन्न अर्थ है। परन्तु कुछ विद्वानों ने बारह की संख्या गिनायी है । यथा-"मोहा दैन्यं भयं हासो हानिग्लामिक क्षुधा तृषा । मृत्युः शोभो व्यथाऽकीर्शिर्वाटाहयते हि द्वादशा | सोरठान्दैन्य मोह भय हास, छुधा छोभ पीड़ा मरन। हानि गलानि पियास, अपजस वारहबाट ये ॥"इसका उदाहरण राजा, रानी, मन्त्री और नगर निवासियों में जगह जगह मिलेगा। भरत बचन सुन मुनि सुख पाई । सबहि कोन्हि बहु भाँति बड़ाई । तात करहु जनि सोच बिसेखी । सब दुख मिट्रिहि राम-पग देखी ॥४॥ भरतजी के घचनों को सुन कर मुनि प्रसन्न हुए और सभी ने बहुत तरह से बड़ाई का ।