पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६५६

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नील-सघन-पल्लव द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५५ चौ०-तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई। नाथ देखियहि बिटप बिसाला । पोकरि जम्बु रसाल तमाला ॥१॥ नब केवट दौड़ कर ऊँचे पर चढ़ गया और भुजा उठाकर भरतजी से कहा । हे नाथ! देखिये, पाफर, जामुन, आम और तमाल के विशाल वृत हैं ॥१॥ तिन्ह तस्बरन्ह मट बट साहो । मज्जु बिसाल देखि मन मोहा ॥ फल-लाला । अबिचलछाँह सुखद सब काला ॥२॥ उन चारों वृक्षों के बीच में सुन्दर विशाल षड़ का पेड़ शोमायमान है, जिसको देख कर मन मोहित हो जाता है । उसके नीले रङ्ग के घने पत्ते और फल लाल हैं, उसकी छाँह सब काल में सुखदायी और अविचल (कभी चलनेवाली नहीं) है ॥२॥ मानहुँ तिमिर-अरुन-मय रासी । बिरची बिधि सकेलि सुखमा थे तरु सरित समीप गोसाँई । रघुबर परन-कुटी जहँ छाई ॥३॥ ऐसा मालूम होता है मानों अन्धकार (श्यामत) और ललाई मिली हुई शोभा की राशि के समान एकट्ठी करके ब्रह्मा ने बनाई है।। हे स्वामिन् ! ये वृत नदी के समीप में हैं, जहाँ रघुनाथजी की पत्तों की कुटी छाई है ॥३॥ पत्ते फल स्वतः वृक्ष में लगे हैं, उसको रचकर ब्रह्मा का बनाया कहना कवि की कल्पमा मात्र 'अनुक्कविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। तुलसी तरुबर बिबिध सुहाये। कहुँ कहुँ सिय कहुँ लखन लगाये । बट-छाया बेदिको बनाई। सिय निज-पानि-सरोज-सुहाई ॥४॥ नानापकार के सुहावने तुलसी के श्रेष्ठ वृक्ष कहीं कहीं सोताजी और कहीं लक्ष्मणजी लगाये हैं। बड़ की छाया में सीताजीने अपने कमल-हाथों से सुन्दर वेदी बनाई है ॥४॥ दो०-जहाँ बैठि मुनि-गन सहित, नितं सिय राम सुजान । सुनहि कथा इतिहास सब,, आगम-निगम-पुरान ॥ २३७ ॥ जहाँ मुनि मण्डली के सहित सीताजी और सुजान रामचन्द्रजी नित्य बैठ कर वेद,शास्त्र पुराणों की कथा का सब इतिहास सुनते हैं ॥२३७॥ कथा और इतिहास शब्द पर्यायवाची होने से पुनिरुक्ति का आभास है, परन्तु अर्थ दोनों का भिन्न भिन्न है अतः पुनिरुक्ति नहीं है। पहला धर्म विषयक व्याख्यान और दूसरा वीती हुई प्रसिद्ध घटनाएँ और उनसे सम्बन्ध रखनेवाले पुरुषों के काल-क्रम का वर्णन 'पुनरुक्तिवदा. भास अलंकार है। चौ०-सखा बचन सनि बिटप निहारी । उमगे भरत बिलोचन बारी॥ करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीतिसारद सकुचाई ॥११॥ मित्र के वचन को सुन कर वृत को देखा, भरतजी के नेत्रों में आँसू उमड़ आये। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले, उनकी प्रीति कहते हुए सरस्वती सकुचा जाती हैं ॥१॥ 1 ।