पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६५७

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रामचरित मानस । हरहिँ निरखि राम-पद-अङ्का । मानहुँ पारस पायेउ रक्षा । रज सिर धरि हिय नयनन्हि लावहिं । रघुबरमिलनसरिस सुखपावहि ॥२॥ रामचन्द्रजी के चरणों के चिन्ह देख कर प्रसन्न होते हैं, ऐसा मालूम होता है मानों महादरिद्री ने पारस पत्थर पायर्या हे।। वहाँ की धूल को सिर पर रख कर हव्य और नेत्रों में लगाते हैं, उससे रधुनाथजी के मिलने के बराबर सुख पाते हैं ॥२॥ देखि भरत गति अकथ अतीवा । प्रेम-मगन खग-मृग जड़ जीवा । सखहि सनेह-बिबस मग भूला । कहि सुपन्ध सुरबर पहिँ फूला ॥३॥ भरतजी की प्रत्यन्त अकथनीय दशा देख कर पक्षी मृग जड़ जॉब भी प्रेम में मग्न हो गये। मित्र (गुह) प्रेम के अधीन होकर रास्ता भूल गया, सुन्दर मार्ग पतला कर देवता फूल परसाते हैं ॥३॥ जब पशु पक्षी श्रादि जड़ जीव प्रेम में निमग्न हो गये, तब निपाद तो मनुष्य श उसका प्रेमासक होकर माग भूल जाना कोई आश्चर्य नहीं 'काव्यार्थापत्ति अलंकार' है। निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेह सराहन लागे । होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचरकरत को 12A स्वाभाविक स्नेह को देख कर सिद्ध और साधक अनुरक्त हो सराहना करने लगे। यदि पृथ्वीतल में भरतजी का प्रेम न प्रगट होता तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता? दो०-प्रेम-अमिय मन्दर-बिरह, भरत-पयोधि गभीर । मधि प्रगटेउ सुह-साधु हित, कृपासिन्धु रघुबीर ॥२३८॥ भरतजी अथाह समुद्र रूप हैं, उनका प्रेम अमृत है और रामचन्द्रजी का विरह मन्दरा- चल है। साधु रूपी देवतामों के लिये दया-सागर रधुनाथजी ने मथ कर (इस अमृत-रन को संसार में ) प्रगट किया ॥२३॥ च०-सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटो । भरत दीख प्रभु आत्रम पावन । सकल सुमङ्गल-सदन सुहावन ॥१॥ मित्र के सहित मनोहर जोड़ी को घने जंगल की आड़ में लक्ष्मणजी ने नहीं लखा। भरतजी ने प्रभु के पवित्र आश्रम को देखा जो सम्पूर्ण सुन्दर महलों का सुहावना स्थान है।९॥ करत प्रबेस मिटे दुख , दावा । जनु जोगी परमारथ पावा । देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूछे बचन कहत अनुरागे ॥२ आश्रम में प्रवेश करते ही दुःख की जलन मिट गई, ऐसा मालूम होता है मानों योगी परमार्थ (सम्यक ज्ञान) पा गया हो। भरतजी ने देखा कि स्वामी के सामने खड़े होकर खा- गजी कुछ पूछी हुई बात को प्रेम से कहते हैं ॥२॥ .