पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८१

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रामचरित मानस । ६२० तात जाय जिय करहु गलानी । ईश अधीन जीव गति जानी तीनि-काल तिभुवन मत मारे । पुन्यसिलोक तात तर तोरे ॥३॥ हे तात ! व्यर्थ ही मन में ब्लानि करते हो, जीव की गति ईश्वराधीन समझनी चाहिये। तीनों काल और तीनों लोक में मेरे मत से हे भाई ! पुण्यात्मा-पुरुष श्राप के नीचे हैं ॥३॥ उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई । जाइ लोक-परलोक नसाई। दोल देहि जननिहि जड़ तेई । जिन्ह गुरु-साधु सभा नहिं सेई ॥४॥ हृदय में श्राप पर कुटिलता ले पाने से लोक और परलोक नष्ट हो जायगा। माता वे ही मूर्ख दोष देगे जिन्हें। ने गुरु और साधु-मण्डली की सेवा नहीं की है मा दो-सिटिहहिं पाप प्रपज सब, अखिल अमङ्गल भार । लोक सुजस परलोक सुख, सुमिरत नाम तुम्हार ॥.२६३ ॥ पाप, सारा भवजाल और सम्पूर्ण अमङ्गलों का भार आप का नाम स्मरण करते ही मिट जाँयगे, उस प्राणी को लोक में सुयश और परलोक में सुख होगा ॥२६३॥ भरतजी के नामस्मरण का उत्तरोत्तर उत्कर्ष वर्णन कि जो प्राणी आपके नाम को स्मरण करेंगे, उनके सब पाप, भक्जाल, समस्त प्रमाल नष्ट होंगे । लोक में सुन्दर यश और परलोक मे सुख पार्वंगे 'सार अलंकार' है चौ-कहउँ सुभाउ सत्य लिव साखी । भरत भूमि रह राउरि राखी । तात कुतरक करहु जनि जाये। बैर प्रेम नहिँ दुरइ दुराये ॥१॥ हे भरत ! मैं स्वभाव से सत्य कहता हूँ इसके शिवजी साक्षी हैं कि धरती प्राप, ही को रक्षा से रहती है। हे भाई ! व्यर्थ की कुतर्कना मत करो, बैर या प्रेम छिपाने से नहीं छिपता ॥१॥ पृथ्वी श्राप ही के रखने से रहेगी। इन वायों में व्यन्जनामुलक गूढ़ व्यङ्ग है कि मैं स्वीकार कर चुका हूँ जो आप कहेंगे वही करूँगा, किन्तु पृथ्वी दुष्ट राक्षसों के बोझ से दवी जा रही है। यदि श्राप प्रसन्न मन से मुझे वन जाने को कहेगे, तभी इसकी रक्षा होगी। दूसरी बात विस्व भरल पोषन कर जोई। ता कर नाम भरत अस होई । आप ही विष्णु रूप पृथ्वी के पालनेवाले हैं। मुनि गन निकट बिहगं मृग जाहीँ । बाधक बधिक बिलोकि पराही । हित अनहित पसु पच्छिउ जाना । मोनुष तनु गुन ज्ञान निधाना॥२॥ पक्षी और मृग मुनियों के समीप जाते हैं, किन्तु बाधा डालनेवाले और बहेलिये (शिकारी). को देन कर भाग जाते हैं। अपने शत्रु और मित्र को पशु पक्षी भी जानते हैं, फिर मनुष्य शरोर तो गुण और ज्ञान का भण्डार है ॥२॥ सभा की प्रति में बालक बधिक बिलोकि पराही पाठ है। परन्तु. गुटका और राजापुर की प्रति में 'बाधक' पाठ है। । । 1