पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७०८

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६४७ द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ठ । कैासिकादि मुलि सचिव समाजू । ज्ञानअम्बुनिधि आपुन आजू ॥ सिसु-सेवक आयसु अनुगामी । जानि सोहि सिख देइय स्वामी ॥२॥ विश्वामित्र आदि मुनि, मन्त्रि मण्डल के सहित आज शानसागर श्राप विद्यमान हैं मुझे पालक (अयोध ) सेवक श्राशा के अनुसार चलनेवाला जान कर-हे स्वामिन् ! शिक्षा दीजिये ॥२॥ एहि समाज धल बूझन राजर । मौन मलिन मैं बोलब बाउर ॥ छोटे बदन कहउँ बड़ि वाता। छमब तात लखि श्राम विधाता ॥३॥ इस सभा स्थान में आप का पूछना, मुझ मलिन के लिये चुप रहना ठीक है, बोलना तो पागलपन होगा। हे तात!छोटे मुंह से बड़ी बात कहता हूँ, विधाता को टेदा लख कर क्षमा कीजियेगा ॥३॥ आगल निगम प्रसिद्ध पुराना । सेवा-धरम कठिन जग जाना। स्वामि-धरम स्वारथहि बिरोधू । वैर-अन्ध प्रेमहि न प्रबोधू ॥४॥ घेद, शास्त्र और पुराणों में विख्यात है और संसार जानता है कि सेवा-धर्म कठिन है। स्वासिधम (निस्वार्थ भाव से स्वामी की सेवा करना) और स्वार्थ (खुद-गरजी) से वैला धी विरोध है, जैसे वैरभाव से अन्धे हुए मनुष्य के हृदय में प्रेम का यथाथ ज्ञान नहीं होता ॥४॥ उत्तराद्ध में प्रथम उपमेय वापथ है, दूसरा उपमान वाश्य है । दोनों धामों में बिना पाचपद के विश्व प्रतिविम्म भाव झलकना उधान्त अलंकार' है। दो०-राखि राम रुख घरस-नत, पराधीन माहि जानि । सब के सम्मत सर्व हित, करिय प्रेम पहिचानि ॥२३॥ रामचन्द्रजी के रुख. और धर्म व्रत की रक्षा करके मुझे पराधीन जान फर सब को सम्मति और सघ के भलाई की बात मेम को पहचान कर कीजिये ॥२६॥ चौ०-भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ । सहित समाज सराहस राऊ । सुगम अगम मृदु मज्जु' कठोरे । अरथ अमित अति ओखर थोरे॥१॥ भरतजी के वचन सुन कर और उनके स्वभाव को देख कर समाज के सहित राजा सराहते है । भरतजी की वाणीः-सुगम है और दुर्गम है, सुन्दर कोमल है और कठिन भी है, अर्थ वक्षा गम्भोर है और अक्षर बहुत धोड़े हैं ॥१॥ ज्यों मुख भुकुर मुकुर निज पानी । गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥ भूप भरत मुनि साधु समाजू । गे जहँ जिबुध-कुमुद-ट्विजराजू ॥२॥ जैसे आइने में मुख देख पड़ता है और यह दर्पण अपने हाथ में रहता है, परन्तु पकड़ा