पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५

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. रामचरित मानस । सो-बन्दउँ मुनि-पद-कज्जु, रामायन जेहिं निरमयेउ । सखर सकोमल मज, दोष-रहित दूषन-सहित ॥ मुनि (वाल्मीकि ) के चरन-कमलों को प्रणाम करता है, जिन्होंने रामायण बनाई । जो खर ( राक्षस ) के सहित कोमलता युक्त सुन्दर है और दूषन (राक्षस ) के सहित हो कर भी दोषों से रहित है। खर और दूषन शब्द श्लेषार्थी हैं जो खरदूषन नाम के राक्षस तथा काव्य में आनेवाले कर्ण कटु आदि दोष दोनों के बोधक होने से 'श्लेष अलंकार' है। सखर होकर कोमलता युक्त और दूषण सहित होने पर निर्दोष, इस घर्णन में 'विरोधाभास अलंकार' है। बन्दउँ चारिउ बेद, भव-बारिधि-बोहित सरिस । जिन्हहिं न सपनेहुँ खेद, बरनत रघुवर-बिसद-जस ॥ चारों वेदों को प्रणाम करता हूँ. जो संसार रूपी समुद्र के लिए जहाज़ के समान हैं। जिनको रघुनाथजी के निर्मल यश वर्णन करने में स्वप्न में भी स्नेद नहीं है अर्थात् प्रसन्नता से निरन्तर हरिकीर्तन करते हैं। बन्दउँ विधि-पद-रेनु, सव-सागर जेहि कीन्ह जहँ । सन्त-सुधा-ससि-धेनु, प्रगटे खल-धिष-बारुनी ॥ मैं ब्रह्मा के चरण-रज को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने संसार रूपी समुद्र को बना कर उसमें सज्जन रूपी अमृत, चन्द्रमा, कामधेनु और दुष्ट रूपी जहर-मदिरा उत्पन्न किया है। दो०-बिबुध बिग्र बुध ग्रह चरन, बन्दि कह कर जोरि । हाइ प्रसन्न पुरवहु सकल, मज्जु मनोरथ मोरि ॥१४॥ देवता, ब्राह्मण, पण्डित और नवग्रहों के चरणों को चन्दना कर के हाथ जोड़ कर कहता हूँ कि प्रसन्न हो कर मेरा सब मनोरथ पूरा कीजिए ॥१५॥ चौ०-पुनि बन्दउँ सारद सुरसरिता । जुगल पुनीन मनोहर-चरिता ॥ मज्जन पान पाप हर एका ।कहत सुनत एक हर अबिवेका ॥१॥ फिर मैं शारदा (कविता नदी) और गगाजी की वन्दना करता हूँ। दोनों के चरित्र पवित्र और. मनोहर है। एक स्नान तथा जल-पान से पाप हरती है, दूसरी कहने और सुनने से अशान नष्ट करती है ॥१॥ गुरु पितु मातु महेस-भवानी । प्रनवउँ दीनबन्धु दिन-दानी ॥ सेवक स्वामि सखा सिय-पीके । हितनिरुपधि सब विधि तुलसी के ॥२॥ दोनों के सहायक, नित्य दान देनेवाले शिव-पार्वती मेरे गुरु, पिता और माता हैं, उनको मैं प्रणाम करना हूँ जो सीताजी के प्राणेश्वर रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी एवम् मित्र हैं और बिना प्रयोजन सब प्रकार तुलसी के हितकारी हैं ॥ २ ॥