पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६५

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७०४ रामचरित मानस । जनाया कि तेरा मन मुझ पर कुछ मान गया है, पर मेरा मन तुझ पर कुछ नहीं माना है। (३) सीताजी को दिखाकर जाहिर करते हैं कि हमारे पास यह रूपवती भार्या है, मैं तुम ले विवाह न पसगा इत्यादि । लक्षमणजी बिना माहे नहीं हैं, फिर रामचन्द्रजी ने कुंवारा क्यों कहा ? उत्तर- इसमें भी व्यह है कि जैसे विधवा होकर तू कुवारी बनी है, तैसे विवादित होने पर साथ के स्त्री न रहने से वे भी कुवारे हैं। प्रकट रूप से अभी रावण से शत्रु ता नहीं गुई, फिर शत्रु क्यों कहा? । उत्तर-भुज उठाइ पन कीन्ह, इस प्रतिमा के साथ ही शवना उन गई । बिना कहे लक्ष्मणजी कैसे जान गये कि यह शव रावण की बहन है ? उत्तर- शूर्पणखा ने कहा कि मैंने तीनों लोकों में खोजा पर मेरे योग्य पति नहीं मिला। इससे लक्ष्मणजी जान गये कि यह राक्षसी है, क्योंकि तीनों लोकों में गमन करना मानवी शक्ति से वाहर की बात है। सुन्दरि सुनु मैं उन्ह कर दासा । पराधीन नहिं तार सुपासा। प्रभु समरथ कोसलपुर राजा ।जो कुछ करहिं उन्हहिं सब छाजा १७ हे सुन्दरी । सुनो, मैं उनका लेवक हूँ, पराये अधीन में रह कर तुझे सुबीता न होगा। प्रभु रामचन्द्रजी अयोध्यानगरी के राजा और समर्थ है, जो कर उन्हें सब लोहेगा ॥७॥ कौशलपुर के राजा अनेक स्त्री रखते आये हैं, वे सब कुल की स्त्री स्वीकार करने में समर्थ हैं। यह शाब्दी व्याह है। सेवक सुख्ख चह मान भिखारी । व्यसनी धन सुभ-गति बिभिचारी॥ लोभी जस चह चार गुमानी। नम दुहि दूध चहत ये प्रानी ८ सेवक होकर सुख की इच्छा करे, भिक्षुक प्रतिष्ठा चाहै, दुवृत्तिवाला सम्पति और पर- स्नीगामी अच्छी गति चाहता हो। लोभी यश तथा टहलू घमंडवाला हो तो ये प्रावी श्राफाश से दूध दुहना चाहते हैं । सेषक (नौकर) का सुख चाहना, मङ्गन का मान चाहना, व्यसनी का धन, व्यभिचारी का मोक्ष और लोभी का यश चाहना तथा टहलू का धमडी होना यह सब उपमेय वाक्य है। श्राकाश से दूध दुहने की कामना उपमान वाश्य है । दोनों वाक्यों में बिम्ब प्रतिविम्ब भाव झलकता है अर्थातू जैसे श्राकाशसे दूध दुहना असम्भव है, वैसे उपयुक्त प्राणियों की चाहना असाध्य जाननी चाहिये 'दृष्टान्त अलंकार' है। पुनि फिरि रोम निकट सो आई । प्रभु लछिमन पहँ बहुरि पठाई ॥ लछिमन कहा ताहि सो बरई । जो तुन तारि लाज परिहरई ॥६॥ फिर वह लौट कर रामचन्द्रजी के पास आई, प्रभु ने पुनः उसको लक्ष्मणजी के समीप भेजा। लक्ष्मणजीने कहा कि तुझको वही व्याहेगा जो लज्जा को तिनके की तरह तोड़ कर त्याग देगा। पुनि और फिरि शब्द पर्यायवाची हैं, इससे पुनरुक्ति का आभास है, परन्तु पुनरुक्ति नहीं है। एक का अर्थ है-फिर और दूसरेका अर्थ है-लौट कर "पुनरुक्तिपदामास अखंकार' ..