पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७७१

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1 ७१० रामचरित-मानस । उर सीख झुज कर चरन । जहँ तहँ लगे महि परन । चिक्करत लागत बाल । घर परत कुधर समान ॥५॥ छाती, खिर, भुजा, हाथ और पाँच कट कर जहाँ तहाँ धरती पर गिरने लगे।वाण लगते ही ज़ोर से चिल्लाते हैं उनकी धड़े पर्वत के समान पृथ्वी पर गिरती हैं ॥५॥ अट कटत तन सत-खंड । पुनि उठत करि पाखंड । नभ उड़त बहु झुज मुंड । मिनु मौलि धावत रुंड ॥६॥ , योद्धाओं के शरीर कट कर सौ लौ टुकड़े होते, फिर वे पाखण्ड कर के उठते हैं। श्राकाश में बहुत सी भुजाएँ और मस्तक उड़ते हैं, विना सिर को धड़े दौड़ती हैं ॥क्षा खग कङ्क काक जुगाल । कटकटहिँ कठिन कराल ॥७॥ चील्ह और काग पक्षी तथा सियार कठिन भीषण कटकटाहत करते हैं ॥७॥ हरिगीतिका-छन्द । कटकटहिँ जम्बुक्क भूत प्रेत पिसाच खप्पर सञ्चौं । बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नहीं। रघुबीर बान प्रचंड खंडहिँ, भटन्ह के उर भुज सिरा । जह तह परहि उठि लरहिँ धरु धरू-धरु करहि भयकर गिरा ॥४॥ लियार पीसते हैं, भूत-प्रेत और पिशाच खोपड़ियों को सञ्चते हैं। येताल गण बोरौं के मुण्डों को बजा कर ताल देते हैं तथा योगिनियाँ नाचती हैं रघुनाथजी के प्रचण्ड बाण योद्धाओं की छाती, भुजाएँ और सिरों को काटते हैं। वे जहाँ तहाँ गिरते हैं, उठ कर खड़ते हैं और पकड़ो पकड़ो धरो भयंकर शब्द करते हैं ॥४॥ अन्तावरी गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं। संग्राम-पुर-बासी मनहुँ बहु, बाल गुड़ी उड़ावहाँ । मारे पछारे उर बिदारे, बिपुल भट कहरत परे । अवलोकि निज दल बिकल भट त्रिसिरादि खरदूषन फिरे । । प्रांतों को पकड़ कर गीध उड़ते हैं और पिशाच उसे हाथ से पकड़ कर दौड़ते हैं। वह ऐसा मालूम होता है मानो संग्राम रूपी नगर के रहनेवाले बालक पतङ्ग उड़ाते हो। कितने ही योदा मारे गये, पछाड़े गये, छाती फाड़ डाली गई वे पड़े, पड़े कराह रहे हैं। अपनी सेना को व्याकुल देख कर खर, दूषण और विशिरा आदि भट रामचन्द्र जी की ओर फिरे ॥१॥