पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८१५

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. ७५२ रामचरित मानस । चौ-नाथ बालि अरु मैं दोउ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई। मय-सुत मायाबी तेहि नाऊँ । आवा सो प्रभु हमरे गाऊँ ॥१॥ हे नाथ ! वाली और मैं दोनों भाई है. हमलोगों में परस्पर इतनी मीति थी कि वह कुछ कही नहीं जाती। हे स्वामिन् ! मयदैत्य का पुत्र जिसका मायावी नाम था, वह हमारे गाँव (किष्किन्धापुरी) में पाया ॥१॥ रामचन्द्रजी के पूछने पर मायावी की कथा कह कर अपनी निदे पिता सिद्ध करने का गूढ़भाव 'गूढ़ोत्तर अलंकार' है। अर्धराति पुर-द्वार पुकारा । बाली रिपु-बल सहइ न पारा ॥ धावा बालि देखि सो भागा । मैं पुनि गयउँ बन्धु सँग लागा ॥२॥ उसने श्राधीरात में नगर के द्वार पर पुकारा, बाली शत्रु के बल को नहीं सह सकता था । दौड़ा, बाली को देखकर वह दानव मागा, फिर मैं भी भाई के सङ्ग लग गया ॥२॥ गिरिबर-गुहा पैठ सो जाई । तब बाली मोहि कहा बुझाई ॥ परखेसु मोहि एक पखवारा । नहिं आवउँ तब जानेसु मारा ॥३॥ , वह दैत्य जाकर पर्वत को एक अच्छी गुफा में पैठ गया, तव नालीने मुझे समझा कर । कहा कि एक पखवारा (पन्द्रह दिन) तुम मेरी राह देखना, जब मैं न पाऊँ तव जान लेना कि मैं सारडाला गया (तुम घर चले जाना) ॥३॥ मास दिवस तह रहेउँ खरारी। निसरो रुधिर धार तहँ भारी ॥ बालि हतेसि माहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ॥१॥ हे खर के शन ! मैं वहाँ महीने दिन रहा, उस गुफा से रक्त की बड़ी धोरा निकली। मैं ने सोचा कि बाली को तो उसने मार ही डाला अव आकर मुझे भी मारेगा, गुफा के द्वार - पर पत्थर का टुकड़ा देकर वहाँ से भाग चला। मन्त्रिन्ह पुर देखा बिनु साई। दीन्हेउँ माहि राज बरिआई। बाली ताहि मारि गृह आवा। देखि माहि जिय भेद बढ़ावा ॥५॥ मन्त्रियों ने बिना राजा का नगर देख कर मुझे जवर्दस्ती राज्य दे दिया। बाली उसको मार कर घर आया और मुझे देख मन में भेद बढ़ाया (कि इसने मुझे मार डालने की इच्छा से गुफा पर पत्थर लगाया, इसी से राजा बन बैठा है) ॥५॥ रिपु सम माहि मारेसि अतिभारी । हरि लीन्हसि सर्वस अरुनारी ॥ ता के भय रघुबीर कृपाला । सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ॥६॥ उसने शत्रु के समान मुझे बहुत बड़ी मार मारी, मेरा सर्वस्व और स्त्रीहर ली। हे कृपालु रघुबीर ! उसके भय से वेचैन होकर मैं समस्त भूमण्डल में फिरा ॥६॥