पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८१९

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१५६ रामचरित-मानसा ने समझाया। हे स्वामिन् ! मुनिये, सुग्रीव जिनसे मिला है, वे दोनों भाई तेज और बल के अवधि हैं ॥१४॥ कोसलेस-सुत लछिमन रामा । कालहु जीति सहि संग्रामा ॥१५॥ वे कौशल के राजा दशरथजी के पुत्र लक्ष्मण और रामचन्द्र काल को भी लड़ाई में जीत सकते हैं ॥१५॥ दो-कह बाली सुनु भीरु प्रिय, समदरसी रघुनाथ ॥' जौं कदाजि माहि मारहि, तो पुनि हाउँ सनाथ ॥७॥ बाली ने कहा हे डरनेवाली प्रिये ! सुन, रघनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित मुझे भारेंगे तो फिर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा १७॥ रघनाथजी समदर्शी हैं वे मुझे काहे को मारेंगे यह कह कर मारने का निषेध किया फिर कदाचित कह कर उसी वातको ठहराना 'निषेधातप' है। चौध-असकहिचला महा अभिमानी । टन समान सुग्रीवहि जानी ॥ मिरे उनी बाली अति तरजा। मुठिका मारि महाधुनि गरजा ॥१॥ ऐसा कह कर वह महा अभिमानी सुग्रीव को तृण के समान समझ कर चला। दोनों भिड़ गये, बाली ने यहुत डॉट कर चूंसा मारा और बड़े ज़ोर से गर्जा ॥१॥ तब सुग्रीव बिकल हाइ भागा । मुष्टि-प्रहार बन सम लागा॥ मैं जो कहा रघुबीर कृपाला । बन्धु न हाइ मार यह काला ॥२॥ सब सुश्रीव व्याकुल होकर भगे, मूके की चोट उन्हें वन के समान लगी । रामचन्द्रजी के पास आकर बोले-हे कृपालु रघवीर ! मैं ने जो कहा था कि यह भाई नहीं मेरा काल है (वही हुश्रा, अब मैं उसके प्रहार से मरना चाहता हूँ) ॥२॥ सत्य बन्धुत्व को असत्य ठहराकर। उपनाम रूपी असत्य कालव का स्थापन 'शुद्धा. पहृति अलंकार' है। एक रूप तुम्ह माता दोऊ । तेहि भ्रम तँ नहिँ मारेउँ सोऊ ॥ कर परसा सुग्रीव सरीरा । तनु मा कुलिस गई सब पीरा ॥३॥ रामचन्द्रजी ने कहा-तुम दोनों भाई पक ही रूप के हो, इसी प्रम से मैं ने उसे नहीं भारा ! इतना कह कर-सुग्रीव के शरीर पर हाथ फेर दिया, जिससे उनका शरीर बज्र हो गया और सव पीड़ा चली गई ॥३॥ सुग्रीव और बाली के आकार में अन्तर न दिखाई पड़ना सामान्य अलंकार' है। सुग्रीव ने कहा था कि बाली मेरा परम हितैषी है, इससे रघुनाथजी ने बाण नहीं चलाया, परन्तु इस बात को छिपा कर 'एकरूपता के भ्रम से उसको नहीं मारा' बहाने की बात कहना व्याजोकि अलंकार' है। जब सुग्रीव बाली को अपना काल कहेंगे, तब रघुनाथजी बाप सारेंगे जिससे यह कहने का अवसर न रहे कि हितू को मारा । ।