पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७७२ रामचरित-मानस । जापि प्रभु जानत सब बाता । राजनीति राखत सुर-त्राता ॥७॥ यद्यपि प्रभु सम बात जानते हैं, तो भी देवताओं के रक्षक भगवान राजनीति को पालन करते हैं॥७॥ दो-चले सकल बन खोजस, सरिता सर गिरि खोह । राम-काज लयलीन मन, बिसंरा तन कर छोह ॥२३॥ सब वन, नदी, तालाव, पर्वत और खोह खोजते हुए चले । रामचन्द्रजी के कार्य में मन लघलीन है। इससे शरीर का प्रेम भुला गया ॥ २३ ॥ चौ० कतहु होइ निसिचर साँ भैंटा। प्रान लेहिँ एक एक चपेटा ।, बहु प्रकारगिरि कानन हेरहि । कोउ मुनि मिलइ ताहिसबघेरहि॥१॥ कहीं राक्षस से भेंट होती है तो एक तमाचे में उसके प्राण ले लेते हैं। बहुत तरह पहाड़ और जङ्गल में हूँढ़ते हैं, कोई मुनि मिलता है तो सब उसे घेर लेते हैं ॥ १ ॥ लागि उषा अतिसय अकुलाने । मिलइ न जल धन गहन भुलाने ॥ मन हनुमान कीन्ह अनुमाना । मरन चहत्त सब बिनु-जल-पाना ॥२॥ बड़ी प्यास लगी; जिस ले सव व्याकुल हो गये, पानी मिलता नहीं, घने जङ्गल में भुला गये । हनूमानजी ने मन में विचार किया कि सब बिना जलपान ही मरना चाहते हैं ! ॥२॥ चढ़ि गिरि सिखर चहूँदिसि देखा । भूमि शिबर एक कौतुक पेखा ॥ चक्रवाक बक हंस उड़ाही । बहुतक खग प्रबिसहि तेहि माहीं ॥३॥ पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर चारों और देखा, धरती के बिल में एक कुतूहल ( आश्चर्य जनक तमाशा ) दिखाई दिया। उसके ऊपर चकमा, बगुला और हंस उड़ते हैं तथा बहुत से पक्षी उसमें घुस रहे हैं ॥३॥ गिरि त उतरि पवन-सुत आवा । सब कह लेइ सोइ बिबर देखावा। आगे करि हनुमन्तहि लीन्हा । पैठे बिबर बिलम्ब न कीन्हा ॥४॥ पवनकुमार पर्वत से उतर आये और सब को ले कर उस विल को दिखाया। बन्दरों ने हनूमानजी जी को आगे कर लिया और बिना विलम्ब के उस विबर में पैठ गये ॥४॥ दो-दीख जाइ उपबन बर, सर बिकसित बहु कज मन्दिर एक रुचिर तह, बैठि नारि तप-पुञ्ज ॥२४॥ भीतर जाकर देखा, वहाँ सुन्दर बगीचा है और तालाब में बहुत से कमल खिले हुए हैं। एक सुहावना मन्दिर है, उस म तप की राशि स्त्री वैठी है ॥ २४ ॥ चौ-दूरि तँ ताहि सबन्हि सिर नावा। पूछे निज वृत्तान्त सुनावा।। तेहि तब कहा करहु जलपाना । खाहु सुरस सुन्दरफल नाना ॥१॥ सब ने दूर हो से उसे सिर नवाया और पूछने पर अपना हाल कह सुनाया, तब उसने- कहा-तुम सब जलपान करो और नाना प्रकार के सुन्दर मीठे फल खाते जाश्रो ॥ १ ॥ । 1