पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८८२

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । od राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद माहा ॥ बसन हीन नहिँ साह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी ॥२॥ रोम नाम के बिना पाणी नहीं सोहती, गर्व और अज्ञान को छोड़ विचार कर देखो। हे सुरारि! सब गहनों से सजी हुई सुन्दर स्त्री बिना वस्त्र के नहीं शामित होती ॥२॥ रामनाम के बिना पाणी की शोभा नहीं, यह उपमेय वाक्य है। सब गहनों से सजी सुन्दर स्त्री बिना कपड़े के नहीं सोहती, यह उपमान घाश्य है । शोभित न होना, दोनों वाक्यों का एक धम है, जोन सोहा और नहि सोह' समानार्थवाची शब्दों द्वारा प्रकट किया गया है। यह 'प्रतिवस्तूपमा अलंकार है'। राम बिमुख सम्पति प्रभुताई । जाइ रही पाई बिनु पाई ॥ सजल-मूल जिन्ह सरितन्ह नाही । बरपि गये पुनि ताहि सुखाहीं॥३॥ रामचन्द्रजी के प्रतिकूल होने से सम्पचि और प्रभुता जो तू ने पाई है उसको बिना पाई समझ, वह जाती रही। जिन नहियों की जड़ सजल नहीं है अर्थात् किसी बड़े जलाशय से नहीं निकली हैं, वे पानी बरस जाने पर फिर तुरन्त ही सूख जाती हैं ॥ ३ ॥ इस चौपाई का पूर्वार्द्ध उपमेय वाश्य और उत्तरार्द्ध उपमान वाक्य है। दोनों वाक्यों में विना वाचक-पद के विम्ब प्रतिविस्य भाव झलकता है अर्थात् जैसे जलाशय हीन नदियाँ वर्षा के बाद सुखा जाती हैं, तैसे राम-विमुखी की सम्पत्ति अल्पकाल में ही नष्ट हो जाती है। यह 'शुष्टान्त अलंकार है। गुटका में सरितमूल जिन्ह सरितन्ह नाही पाठ है। पर अर्थ दोनों का एक ही है। इस चौपाई का लोग कई प्रकार से अर्थ करते हैं। जैसे- (१) जो सम्पत्ति और प्रभुता मिली है और जो भविष्य में मिलनेवाली है, वह दोनों जाती रही । (२) पाई पाँव वाले. हाथी, घोड़े, सेना आदि और यिनुपाई-स्थावर सम्पत्ति महल, पगीचे, भूमि श्रादि सब जाती रहेगी। (३) सम्पचि और प्रभुता दोनों जा रही है और बिनु पाई जो अब तक तुझे विपति नहीं मिली है, वह प्राप्त होगी इत्यादि। सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिँ कोपी । सङ्कर सहस बिष्नु अज ताही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥२॥ हे दशानन ! सुन, मैं प्रतिक्षा करके कहता कि राम-विमुखी की रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं है। रामचन्द्रजी का द्रोही होने से तुझे हजारों शङ्कर, विष्णु और ब्रह्मा नहीं बचा दोल-मोह मूल बहु. सूल प्रद, त्यागहु तम अमिमान । भजहु राम रघुनायक, कृपासिन्धु भगवान ॥२३॥ अशान की जड़, बहुत तरह के दुःखों को देनेवाला, अन्धकार रूप अभिमान को त्याग कर तुम रघुकुल के स्वामी, दयासागर भगवान रामचन्द्रजी का भजन करो ॥२३॥ . सकते ॥४॥ १०२