पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८८३

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A रामचरित मानस । चौ०-जदपिकहीकपिअतिहितबानी। भगति-बिबेक-बिरति-जय-मानी। बोला बिहँसि महा अभिमानी। मिला हमाह कपि गुरु बड़ ज्ञानी ॥ यद्यपि हनूमानजी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से मरी हुई अत्यन्त हित की बात कही, ते भी महा अहङ्कारी रावण (तिरस्कार सूचित करते हुए) हँस कर बोला कि हमें यह बन्दर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला है ॥६॥ निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन माही। उलटा होइहि कह हनुमाना । मति-सम ताहि प्रगट मैं जाना ॥२॥ अरे दुष्ट, अधम बन्दर ! तू मुझे सिखाने लगा है, तेरी मृत्यु समीप आ गई है।हनू मानजी ने कहा-इसका उलटा होगा, क्योंकि तुझे बुद्धि भ्रम दुना है इससे मैंने प्रत्यक्ष मान लियां ॥२॥ जिसका काल समीप भाता है , उसको बुद्धि मारी जाती है। मेरी नहीं तेरी मौत समीप आँगई है, यह व्यज्ञार्थ वाच्यार्थ के वरावर तुल्यप्रधान गुणीभूत ध्यङ्ग है। सुनि कपि बचन बहुत खिलियाना । बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना । सुलत निखाचर मारन धाये । सचिवन्ह सहित बिभीषन आये ॥३॥ हनूमानजी के वचनों को सुन कर रावण बहुत कोधित हुआ और कहा कि इस मूर्ख बन्दर का माण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते ? अर्थात् तुरन्स मार डाला। सुनते ही राक्षस मारने दौड़े, उसी समय मन्त्रियों सहित विमीषणश्रा गये ॥३॥ नाइ सोस करि बिनय बहूता । नोति विरोध न मारिय दूता॥ आन्न दंड कछु करिय गोसाँई । सत्रहो. कहा मन्त्र अल भाई ॥४॥ उन्हाने प्रणाम करके बहुत प्राथना की कि दूत को न मारिये, यह नोति से विरुद्ध है । हे स्वामिन् ! कुछ दूसरा ही दण्ड दीजिये, सभी ने कहा-माई ! यह सलाह अच्छी है ॥५ सुनत बिहँसि बोला इसकन्धेर । अङ्गभङ्ग करि पठवहु बन्दर ॥३॥ सुनते ही रावण हँस कर घोला कि बन्दर का कोई प्रजनन्द करके भेजना चाहिये ॥५॥ दो-कपि के ममता पूँछि पर, सबहि कहेउ समुझाइ । तेल बोरि पट बाँधि पुनि, पावक देहु लगाइ ॥२४॥ रावण ने सब को समझा कर कहा कि घन्दर की पूछ पर बड़ी प्रीति है। उस मैं बस्न लपेट कर फिर तेल में डुबो कर आग लगा दो ॥२४॥ चौ०-पूँछ होनबालरतह जाइहि । तब सठ निज नाथहि लेइ आइहि ॥ जिन्ह के कीन्हेसि बहुत बड़ाई। देखउँ मैं सिन्ह के प्रभुताई ॥१॥ जब बिना पूछ का (बाडा) होकर बन्दर वहाँ जायगा, तब यह दुष्ट अपने मालिक को ले प्रावैगा । जिनको इसने बहुत बड़ाई की है, मैं उनकी प्रभुता देखंगा ॥१॥