पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९२६

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पष्ट सोपाने, लताकाण्ड । दो०-सङ्कर प्रिय मम द्रोही, सिव द्रोही मम दास । ते नर करहिं कलप भरि, घोर नरक महँ बास ॥२॥ मेरा द्रोही शहर का प्यारा होना चाहे या शिवजी से द्रोह करनेवाला मेरा दास हो तो वे मनुष्य कल्पपर्यन्त भीषण नरक में वास करते हैं ॥२॥ चौ०--जो रामेस्वर दरसन करिहहि । ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहि। जो गंडा-जल आनि चढ़ाइहि । स साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥१॥ जो रामेश्वर के दर्शन करेंगे, वे शरीर त्यागने पर हमारे लोक (वैकुण्ठ) को जायगे और जो गाजल ला कर चढ़ावेगे वे मनुष्य सायुज्य-मोक्ष पावेंगे ॥१॥ यहाँ "रामेश्वर शब्द में 'सेवक एवामि सखा लिय पी के इस चौपाई के अनुसार तीनों अर्थ प्रकट होते हैं। जैसे-पानीहि समास करने से, राम हैं ईश्वर जिसके, यह सेवक माव हुआ। षष्ठी तत्पुरुष करने से राम का ईश्वर, यह स्वामिभाव हुआ। बन्द समास करने से रामचन्द्र और महादेव जहाँ निवास कर वह स्थान, यह सखा भाष हुआ । इस पर किसी कवि ने एक दोहा लिखा है-राम कहें तत्पुरुष है, बहुव्रीहि हर गाय । कम धारये मुनि निकर, रामेश्वर पद पाय॥ होइ अकाम जो छल तजि सेइहि । भगति मारि तेहि सकुर देवहि ॥ ममकृत सेतु जो दरसन करिही। सेा बिनु सम भव-सागर सरिही ॥२॥ जो निष्कामभाव से छल छोड़ कर सेवा कगे, उन्हें शकरजी मेरी भक्ति देंगे। हमारे किये हुप. सेतु का जो दर्शन करेंगे वे पिना परिश्रम संसार रूपी समुद्र से पार हो जाँग्गे ॥२॥ राम बचन सब्द के जिय भाये । मुनिबर निज निज आर म आये। गिरिजा रघुपति कै यह रीती । सन्तत करहिं प्रनत पर प्रीती॥३॥ रामचन्द्रजी के वचन सब के मन में अच्छे लगे, मुनिवर अपने अपने श्राश्रम को लौट आये । शिवजी कहते हैं-हे गिरिजा ! रघुनाथजी की यह रीति है, वे अपने भकों पर सदा प्रीति करते हैं ॥३॥ बाँधेउ सेतु नील-नल-नागर । राम कृपा- जस भयउ उजागर ॥ धूड़हिँ आनहिँ बाहिँ जेई । भये उपल बोहित सम तेई ॥४॥ प्रवीण नल-नील ने सेतु बाँधा, रामचन्द्रजी की कृपा से उनका यश विख्यात हुशा। जो दूसरों को डुबाते हैं और आप भी जाते हैं, वे ही पत्थर जहाज के समान हुए ॥४॥ पत्थर पानी पर उतराने के कारण नहीं हैं, वे पानी पर उतरा गये 'चतुर्थ विभावना भलंकार है। ।