पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९४२

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पष्ट सापान, लङ्काकाण्ड । चौग-बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह-महिमा बलवाना ॥ नारि सुभाव सत्य कवि कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं ॥९॥ स्त्री की बात कान से सुन कर रावण हँसा और विस्मय सुत्रित करते हुए बोला-माह महिमा में बड़ा बली है। कवि लोग स्त्रियों का स्वभाव सत्य कहते हैं कि उनके हृदय में पदा ये आठ अवगुण रहते हैं ॥१॥ साहस अन्त चपलता माया । भय अबिबेक असौच अदाया॥ रिपु कर रूप सफल त गावा । अति विसाल जय मोहि सुनावा ॥२॥ साहस, (उतावली से विना विचार काम कर बैठना) झूड, वञ्चलता, छल, उर अशान, अपवित्रता और निर्दयता! तू ने सार ब्रह्माण्ड को शत्रु का रूप वर्णन कर मुझे बड़ा भारी डर सुनाया है ॥२॥ सो सब प्रिया सहज बस मारे । समुझि परा प्रसाद अब तोरे । जाने प्रिया तोरि चतुराई । एहि मिस कहेहु मोरि मनाई ॥३॥ हे प्रिये वह सारी सृष्टि स्वाभाविक मेरे वश में है, हाँ--अब तेरी कृपा से मुझे समझ पड़ा । प्रिये ! तेरी चतुराई मैं समझ गया, तू ने इस बहाने मेरी महिमा कही है ॥३॥ रावण को अभीष्ट नौ है मन्दोदरी की बात उड़ाना, उसको बहाने से पलट कर कार्य साधन करना 'द्वितीय पर्यायाति अलंकार है। तव बतकही गूढ़ सृग-लोचनि । समुझत-सुखद सुनत-अय मोचनि। मन्दोदरि मन महँ अस ठयजा पियहि काल-बस मति-मम भयऊ ॥४॥ हे मृगनैनी । तुम्हारी बातचीत गूढ़ (जिसका अभिप्राय जल्दी समझ में न श्रावे) है, जो समझने में सुखदाई और सुनने से डर छुड़ानेवाली है ! मन्दादरी ने मन में यह निश्चय कर लिया कि पति कालवश हो गये, इसी से इनकी बुद्धि में भ्रम हुआ है nen रावण के 'गूढ' शब्द में श्लेष की ध्वनि है कि भगवान के पापों से मेरी मृत्यु होगी, यह समझने में सुनवाई है और परमात्मा के हाथ से मारे जाने पर संसार का भय दूर होगा, यह भय छुड़ानेवाली है। दो-एहि बिधि करत बिनोद बहु, प्रात पगट दसकन्छ । सहज असङ्कलरूपति, सभा गयउ मद-अन्ध । इस तरह बहुत साहसी मजाक करते सवेरा हो गया तब स्वाभाविक निर्भय मदान्ध नवर सभा में गया। सो०-फूलइ फरान बत, जदपि सुधा बरषा, जलद । सभा की प्रति में 'सुलपति पाठ है । वहाँ 'सु' निरर्थक है। मूरुख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं बिरचि-सिब ॥१६॥ यद्यपि मेघ पानी घरलते हैं, तो भी वेत-वृक्ष फूलता फलता नहीं । यदि बक्षा और शिव भी गुरु मिले, परन्तु मूर्ख के हृदय में ज्ञान नहीं होता ॥१६॥