पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९८६

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भष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । दसमुख कहा सरम तेहि सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिर धुना ॥ देखत तुम्हहि नगर जेहि जारा । तासु पन्थ को रोकनिहारा ॥२॥ रावण ने भेद कहा-उसने सुना, फिर कालनेमि ने बार बार अपना मस्तक पीटा और बोला-जिसने तुम्हारे देखते नगर जला दिया, उसका रास्ता रोकनेवाला कौन है ? ॥२॥ भजि रघुपति करु हित आफ्ना । छाइहु नाथ सृषा जलपना । नील-कज-तनु सुन्दर स्यामा । हृदय राखु लोचन अभिरामा ॥३॥ हे नाथ ! रघुनाथजी का भजन कर अपनी भलाई कीजिये और झूठे पकवाद को छोड़ दीजिए । नील कमल के समान श्याम सुन्दर शरीर जो आँखों को आनन्ददायक हैं, वह हृदय में रफ्नो ॥३॥ अहङ्कार ममता भद त्यागू। महामोह-निसि सूतत जागू॥ काल-ब्याल कर मच्छक जाई । सपनेहुँ समर कि जीतिय साई ॥४॥ अक्षार, ममत्व और मद को त्याग दो, घोर अज्ञान की रात्रि में सोने से जागो । जो काल रूपी सर्प के भक्षक हैं, क्या उनसे लड़ाई करके स्वप्न में भी जीत सकते हो? (कदापि नहीं) men दो०-सुनि दसकंठ रिसान अति, तेहि मन कीन्ह बिचार । राम दूत कर मरउँ बरू, यह खल रत-पल-भार ॥५६॥ सुन कर रोवण अत्यन्त कोधित हुश्रा, उसने मन में विचार किया कि यह दुष्ट महापापों में तत्पर है, परन् (भरना ही है at) रामदूत के हाथ से माँ ॥ ५६ ॥ चौ०-अस कहि चला रचेसि मग माया । सर मन्दिर बर बाग बनाया। मारुत-सुत देखा सुम आख म । मुनिहिं बूमि जल पिआउँ जाइ खम॥१॥ ऐसा (मन में) कह कर चला और रास्ते में सरोवर पर सुन्दर मन्दिर तथा बाग' माया से बनाया। पवनकुमार ने रमणीय श्राश्रम देख कर विचारा कि मुनि से पूछ कर जलपान कर तो थकावट दूर हो ॥१॥ इस चौपाई का यदि इस तरह अर्थ किया जाय कि माया से तालाब, मन्दिर और बाग बनाया तो शक्षा उत्पन्न होती है कि-चिरकाल से शाप वश मगरी ने उसमें कैसे निवास कियो १ इससे स्पष्ट है तालाब प्राचीन था, वहाँ माया से मन्दिर-बाग निर्माण कर कालनेमि ने रमणीय बनाया। राच्छस कपट बेष तहँ सोहा । मायापति-दूर्ताह. चह जाइ पवन-सुत नायउ माथा । लाग सो कहइ राम-गुन-गाथा ॥२॥ वहाँ राक्षस कपट वेषधारी मुनि होकर शोभित है, जो मायोनाथ के दूत को । उगना । मोहा॥