पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३०६

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बाल-एड ५ ३०३ । ॐ जौं अति प्रिय तौ करिअ उपाई ॐ जोरिय कोउ वड़ गुनी बोलाई राम बोलत लपनहिं जनकु डेराहीं ॐ मष्ट' करहु अनुचित भल नाहीं यदि ( धनुष ) अधिक प्रिय हो, तो उपाय किया जाये और किसी बड़े सुमो गुणी को बुलवाकर जुड़वा दिया जाय । लक्ष्मण के बोलने से जनक डरते हैं। उन और कहते हैं--बस, चुप रहिये; अनुचित बोलना अच्छा नहीं ।। थर थर काँपहिं पुर नर नारी नै छोट कुमार खोट वड़ भारी भृगुपति सुनि सुनि निर्भय वानी ॐ रिस तन जरइ होइ वल हानी | जनकपुर के स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं (और कहते हैं कि) छोटा कुमार बड़ा ही खोटा है। लक्ष्मण की निर्भय बाणी सुन-सुनकर परशुराम का शरीर क्रोध * से जला जा रहा है; और उनके बल का हास हो रहा है। बोले रामहिं देइ निहोरा ॐ बचउँ विचार बंधु लघु तोरा - मन मलीन तनु सुंदर कैसे ॐ विप रस भरा कनक घटु जैसे । राम पर एहसान जताकर वे बोले--तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा। रहा हूँ। यह मन का तो मैला है और शरीर कैसा सुन्दर है, जैसे विष के रस से | राम भरी हुआ सोने का घडा} । सुनिलछिमन विहँसे बहुरि नयन तरेरे रस। ° गुर समीष गवने सकुचि परिहार बान्नी वास’ ॥२७८॥ यह सुनकर लक्ष्मण फिर हँसे । तब राम ने कड़ी नज़र से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मण सकुचोकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरु के पास राम) चले गये । [ अति विनीत मृदु सीतल वानी ॐ बोले रामु जोरि जुग पानी । ए सुनहु नार्थ तुम्ह सहज सुजाला वालक बचनु करिअ नहिं काना एन् राम दोनों हाथ जोड़कर बहुत नम्रता से कोमल और शीतल वाणी बोले---हे नाथ ! सुनिये । अपि तो स्वभाव ही से सुजाने हैं। आप बालक के वचन पर कान न दीजिये। ' वर वालकु कु सुभाऊ ॐ इन्हहिं न संत विदूपर्हि काऊ । ॐ तेहि नाहीं कुछ काज विगारा ॐ अपराधी मैं नाथ तुम्हारा , १. चुप । २. एहसान । ३. विपरीत ।