पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

३४२ अच्छति भन । हैं . • आकाश और नगर में कोलाहल हो रहा है। कोई अपनी परायी कुछ नहीं । सुनता } इस प्रकार राम मंडप में आये और अयं देकर आसन पर बैठाये गये। कुँ छंद-बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुख पावहीं। एम मनि बसन भूषन भूरि बारहिं नारि मंगल गावहीं॥ ब्रह्मादि सुर बर बिग्रे बेष बनाइ कौतुक देखहीं। ऐसे ॐ अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबिलुफल जीवन लेखहीं हैं। राम को आसन पर बैठाकर, आरती करके और दुलह को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढेर के ढेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मङ्गल गी रही हैं । ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेष बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुलरूपी कमल के सूर्य की छवि देखकर अपना जीवन सफल समझ रहे हैं। नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि घाइ। मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ ३१९ एम नाई, वारी, भाट और नट राम की निछावर पाकर, प्रसन्न होकर, सिर । नवाकर आशीर्वाद देते हैं, हर्ष उनके हृदय में समाता नहीं है। मिले जनकु दसरथु अति प्रीती के करि वैदिक लौकिक सुव रीती मिलत महा दोउ राज विराजे के उपमा खोजि खोजि कबि लाजे | वेदों में वर्णित और लोक में प्रचलित दोनों रीतियाँ पूरी करके जनकजी. * और दुशरथजी बड़े प्रेम से मिले । दोनों महाराज मिलते हुये ऐसे शोभित हुये हैं म कि कवि उनके लिये उपमा खोज-खोजकर लजा गये। ॐ लही न कतहुँ हारि हियँ मानी ॐ इन्ह सम राइ उपमा उर आनी है राम सोमध देखि देव अनुरागे $ सुमन बघि जसु गावन लागे । जब कहीं उपमा न मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने यह उपमा एम निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर सम्बन्ध । . देखकर देवता अनुरक्त हो गये । वे फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे। । जगु विरंचि उपजावा जब तें $ देखे सुने व्याह बहु तव ते । सकल भॉति सम साजु समाजू % सम समधी देखे हम आजू ॐ वे कहने लगे—जब से ब्रह्मा ने जगत् को उत्पन्न किया, तब से हमने के