पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३९४

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छ : - ( ® ३६३ है और सुनकर राजा दशरथ बहुत ही आनन्दित होते हैं। ए सब के उर अभिलाषु अस कहहिं मनाई महेसु । । । 2- आपु अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु ॥१॥ सभी लोगों के हृदय में ऐसी अभिलाषा है और वे महादेवजी को मनाकर कहते हैं कि राजा अपने जीतेजी रामचन्द्रजी को युवराज-पद दें। । एक समय सब सहित समाज को राजसभाँ रघुराजु विराजा सकले सुकृत भूरति नरनाहू राय सुजसु सुनि अतिहि उछाहू एक समय रघुकुल के राजा दशरथजी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज सम्पूर्ण पुण्य की मूर्ति हैं, उनको रामचन्द्रजी की सुकीर्ति सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। हैं नृप सव रहहिं कृपा अभिलाषे % लोकप करहिं प्रीति रुख राखें । राम त्रिभुवन तीनि काल जग माहीं ॐ भूरि भाग दसरथ सम नाहीं रामो 'सब राजा लोग महाराज दशरथ की कृपा की लालसा रखते हैं और लोक- राम पालगण उनके रुख को देखते हुये प्रीति करते हैं। तीनों भुवनों (पृथ्वी, । आकाश, पाताल ) में और ( भूत, भविष्य, वर्तमान ) तीनों काल में दशरथजी । के समान भाग्यवान् और कोई नहीं है। । मङ्गल मूल रामु सुत जासू ॐ जो कछु कहिय थोर सत्रु तासू राय सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा ॐ बदनु' विलोकि मुकुट सम कीन्हा मंगलों के मूल रामचन्द्रजी जिनके पुत्र हैं, उनके लिये जो कुछ कहा जाय, सभी थोड़ा है। महाराज ने स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुंह देखकर मुकुट को सीधा किया। स्रवन समीप भए सित' केसा ॐ मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा एने नृप जुबराजु राम कहुँ देहू ॐ जीवन जनम लाहु किन लेहू कान के पास बाल सफ़ेद हो गये हैं। मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश दे रहा है । एम् कि हे राजन् ! रामचन्द्रजी को युवराज-पद देकर अपने जीवन और जन्म का । । लाभ क्यों नहीं लेते है।

१. मुख । २. सफेद ।