पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/४०८

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छ : अ छा - छ । ४०७ विधाता ने कुरूप बनाकर मुझे परवश कर दिया । जो वोया है, सो काटती है हैं, जो दिया है, सो पाती हूँ। कोई भी राजा हो, हमारी क्या हानि है ? दासी ने के छोड़कर क्या अब मैं रानी होऊँगी ? रामो जारै जोगु सुभाउ हमारा ॐ अनभल देखि न जाइ तुम्हारा * ता ते कछुक बात अनुसारी ॐ छमि देवि वड़ि चूक हमारी ए हमारा स्वभाव तो जलाने ही लायक है। तुम्हारा अहित नहीं देखा एक जाता, इसलिए कुछ बात चलाई थी। किन्तु हे देवि ! क्षमा करो, हमारी बड़ी भूल हुई। ॐ गूढ़ झपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।। हैं | सुर माया बस वैरिनिहिं सुहृद जानि पतिनि।१६। रामो ओठ पर बुद्धि रखने वाली ( क्षणिक बुद्धि ) रानी कैकेयी ने मंथरा के हुँ कपट-भरे हुए रहस्य-युक्त प्रिय वचनों को सुनकर देवताओं की माया के वश में हो राम्रो हो उस बैरिन को अपनी सुहृद जानकर उसका विश्वास कर लिया । । सादर पुनि पुनि पूँति ओही ॐ सवरी गान मृगी जनु मोही तुम् तसि मति फिरी अहई जसि भावी ॐ रहसी बेरि घात जनु फावी कैकेयी आदर के साथ बारम्बार उसे पूछ रही हैं। मानो भीलनी के गान से हिरनी मोहित हो गई हो। जैसा होनहार है, वैसी ही बुद्धि भी पलट गई है। दासी अपना दाँब लगा जानकर हर्षित हो गई। तुम्ह पूछहु मैं कहत डेराऊँ ॐ धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ सजि प्रतीति वहुविधि गढ़ि छोली की अवध साढ़ेसाती तब बोली । तुम पूछती हो, किन्तु मैं कहते डरती हूँ; क्योंकि तुमने मेरा नाम घरफोड़ी (एम) रख लिया है। खुब विश्वीस जमाकर, बहुत तरह से गढ़-छोलकर तब वह अयोध्या (राम) है की साढ़ेसाती ( शनि की साढ़े सात वर्ष की दशा ) वोली-- राम्रो प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी ॐ रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि वानी ने ।। रहा प्रथम अव ते दिन बीते ॐ समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते ॥ . हे रानी ! तुमने जो कहा कि मुझे सीताराम प्रिय हैं और राम को तुम ए प्रिय हो, यह बात सच्ची है। परन्तु यह बात पहले थी, अब वे दिन बीत गये । * १. जलाने । २. शनि की साढ़े सात वर्ष की दशा । ३. सत्य ! ४. मित्र ।