पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/४१४

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छ : अयोध्या-एड ® ४१३ ॐ - बड़ कुधातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाह। राम् as काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिप्राहु।२। ) पापिनी मन्थरा ने बड़ी बुरी घात लगाकर कहा-कोप-भवन में जाओ। होशियारी से सब काम बना लेना, एकदम विश्वास न कर लेना। कुवरिहि रानि प्रानप्रिय जानी ॐ वार बार वड़ि बुद्धि वखानी तोहि सम हित न मोर संसारा की वहे जात कइ भइसि” अधारा म) रानी ने कुबरी को प्रार्थों के समान प्रिय समझा और बार-बार उसकी | बुद्धि की सराहना की । ( वह बोली-- ) संसार में तेरे बराबर मेरा हितकारी कोई राम दूसरा नहीं है। मुझे बही जाती हुई को तू सहारा मिल गई। ॐ जौं विधि पुरव' मनोरथ काली के करीं तोहि चख पूतरि आली राम् बहु विधि चेरिहि आदरु देई के कोप भवन गवनी कैकेई राम

  • हे सखी ! जो विधाता कल मेरा मनोरथ पूर्ण कर दें, तो मैं तुझे अपनी आँख की पुतली बनाऊँगी। इस प्रकार दासी को बहुत तरह से आदर देकर से कैकेयी कोप-भवन में चली गई।

चिपति वीजु बरपा रितु चेरी की सुइँ भइ कुमति कैकई केरी पाइ कपट जलु अंकुर जामा $ वर दोउ दल दुख फल परिनामा विपत्ति बीज है, दासी वर्षा-ऋतु है, कैकेयी की कुबुद्धि ज़मीन है, उसमें कपट-रूपी जल पाकर अंकुर फूट निकला। दोनों वरदान अंकुर के दो पत्ते हैं। अंत में दुख-रूपी फल फलेगी । [ सांगरूपक अलंकार ] कोप समाजु साजि सव सोई ६ राजु करत निज कुमति विगोई राउर नगर कोलाहलु होई ॐ यह कुवालि कछु जान ने कोई राम) कोप का सब साज सजाकर कैकेयी कोप-भवन में जा सोई । राज्य कर रही उनको थी, पर अपनी दुष्ट बुद्धि से नष्ट हो गई। राजमहल और नगर में धूम-धाम मच रही है, इस कुचाल को कोई कुछ नहीं जानता । ॥ - प्रमुदित पुर नर नारि सव सजहिं सुसङ्गलचार ।। है ! एक प्रबिसहिं एक निर्गसहिं भीर भूप दरवार ॥२३॥ राम) १. प्राचीन काल में राजभवनों में एक कोप-गृह भी होता था, जिसमें कुटुम्ब के जिस व्यक्ति न | को कुछ नाराजी होती थी, तो वह जा बैठता था। २. हुई । ३. पूरा करें। ४. राजा सहल ।