पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/४५

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है ४२ उन्होंने सीताजी की निन्दा करनेवालों (धोबी आदि) के पापों के समूह को नाश कर, उनको शोक-रहित करके बैकुण्ठ- लोक में बसा दिया। मैं पूर्व-दिशी के समान कौशल्या माता की वन्दना करता हैं, जिनकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है।

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू' ॐ विस्व सुखद खल कमल तुपारू' ॥
दसरथ राउ सहित सव रानी ॐ सुकृत सुमंगल मूरति मानी ॥

यहाँ कौशल्यारूपिणी पूर्व दिशा में सुन्दर चन्द्रमा के समान रामचन्द्रजी राम) का उदय हुआ, जो सारे संसार को सुख देने वाले और दुष्टरूपी कमलों के लिये राम ॐ पाले के समान हैं। सब रानियों-सहित राजा दशरथ को सारे पुण्यों और कल्याण राम की मूर्ति मान कर

करउँ प्रनाम करम मन वानी ॐ करहु कृपा सुत सेवक जानी ॥
जिन्हहिं विरंचि बड़ भयेउ विधाता । महिमा अवधि राम पितु माता ॥

मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। मुझे अपने पुत्र का सेवक जानकर मुझ पर कृपा करो। जिन को रचकर ब्रह्मा ने भी बड़ाई पाई। राम के माता हैं और पिता होने के कारण वे महिमा की सीमा हैं।

बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद ।। 
विछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥१६॥

में अवध के राजा दशरथ की वन्दना करता हूँ, जिनको रामचन्द्रजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु (रामचन्द्रजी) के बिछड़ते ही अपने प्रिय शरीर को तिनके के समान त्याग दिया।

प्रनवउँ परिजन सहित विदेहू' ॐ जाहिं राम पद गूढ़ सनेहू ॥राम 
जोग भोग महुँ राखेउ गोई ॐ राम विलोकत प्रगटेउ सोई ॥

परिवार-सहित राजा जनक को मैं प्रणाम करता हूँ, जिनको रामचन्द्रजी के चरणों में गूढ़ स्नेह था, जिन्हें उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था; परन्तु ॐ रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया।

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना ॐ जासु नेम व्रत जाइ न वरना ॥
राम चरन पंकजे मन जासू । लुवुध मधुप इव तजइ न पासू ॥
१. सुन्दर । २. पाला । ३. राजा जनक । ४. गुप्त, छिपा हुआ ।