पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/८३

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८० : ४ ॐ ॐ | विरह विकल नर इव' रघुराई ॐ खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई के कबहूँ जोग बियोग न जाकें ॐ देखा प्रगट विरह दुखु ताके | रामचन्द्रजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं। दोनों भाई वन में सीता को ढूंढते फिरने लगे। जिनको कभी संयोग-वियोग नहीं होता, उनमें विरह का दुख प्रत्यक्ष देखा गया । * अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान। जे मतिमंद बिमोह बसहृदयँ धरहिं कछु आन॥४९॥ रामचन्द्रजी का चरित बड़ा ही विलक्षण है। इसे बड़े ज्ञानी ही जानते हैं। जो मन्दबुद्धि हैं, वे अज्ञान के वश में मन में कुछ और ही समझ बैठते हैं। संभु समय तेहि . रामहिं. देखा ॐ उपजा हियँ अति हरषु विसेखा * भरि लोचन छबिसिंधु निहारी ॐ कुसमय जानि न कीन्ह चिन्हारी के शिवजी ने उस समय रामचन्द्रजी को देखा और उनके मन में बहुत बड़ा के आनन्द उत्पन्न हुआ । उन शोभा के समुद्र ( रामचन्द्रजी ) को शिवजी ने नेत्र के भरकर देखा। पर मौक़ा ठीक न समझकर उन्होंने उनसे परिचय नहीं किया। ॐ जय सच्चिदानन्द जग पावन ॐ अस कहि चलेउ मनोज नसावन हैं। एम) चले जात सिव सती समेता ॐ पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता राम जगत् को पवित्र करने वाले सच्चिदानन्द की जय हो” ऐसा कहकर एम् कामदेव का नाश करने वाले ( शिक्जी ) चल पड़े । कृपा-निधान शिक्जी बार। बार आनन्द से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे। सती. सो दसा संभु कै देखी ॐ उर उपजा संदेहु बिसेखी को सङ्कर जगतबंद्य जगदीसा ॐ सुर नर मुनि सब नावत सीसा | सतीजी ने महादेवजी की बह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा सन्देह हुआ। म) ( वे मन ही मन कहने लगीं ) सारा जगत् तो शिवजी की वन्दना करता है, मग वे जगत् के ईश्वर हैं, उनको देवता, मनुष्य, मुनि सब सिर नवाते हैं। तिन्ह नृपसुतहिं कीन्ह परनामा ॐ कहि सच्चिदानंद परधामा ॐ भये मगन छबि तासु बिलोकी” ॐ अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी | १. समान । २. अन्य, दूसरा । ३. परिचय । ४. देखकर ।