राष्ट्रभाषा १३ दक्खिनी के विषय में भूलना न होगा कि श्रीमार्कंडेय कवींद्र ने १५वीं शती ई० ) उसके संबंध में (प्राकृतसर्वस्व में) लिखा है- "द्राविडीमप्यन्नैव मन्यते । तथोक्तम्- टक्कदेशीयभाषायां दृश्यते द्राविणी तथा । तत्र चायं विशेषोऽस्ति द्राविडैराहतापरम् ॥ इति ।।" (पोडश पाद) इधर भाषाशास्त्रियों ने दक्खिनी का जो लेखा लिया है वह मार्कंडेय के उक्त कथन के सर्वथा अनुकूल है। किंतु स्वयं दक्खिनी कवियों ने कभी टक्क वा टकी का नाम नहीं लिया है। तो क्या मार्कंडेय का कथन सचमुच निराधार है ? निवेदन है नहीं, दक्खिनी के प्रायः सभी पुराने लेखकों ने अपनी भाषा को गूजरी कहा है जिसका अर्थ उर्दू में गुजराती लगाया गया है। पर जैसा कि कहा जा चुका है, उनकी भाषा गुजराती से मेल नहीं खाती, हाँ, पंजाबी से अवश्य मिलती है । तो क्या उनकी गुजराती पंजाब के गुजरात से संबद्ध है ? जो हो, हम तो इस गूजरी को प्रत्यक्ष गुर्जरी का रूप समझते हैं। गुर्जरों के विषय में जो (भोजदेव के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सरस्वती कष्ठाभरण' में ) कहा गया है 'अपभ्रंशेन तुष्यन्ति स्वेन नान्येन गुर्जरा उसका भी कुछ अर्थ है । उसे अब यों ही नहीं टाला जा सकता। 'गूजरी' तो हिंदी की नायिका ही बन गई है, फिर राष्ट्र-भाषा के प्रसंग में उसे कैसे छोड़ सकते हैं। अच्छा तो देखना यह है कि इस गूजरी का संस्कृत से क्या संबंध है, क्योंकि इस पर डटकर विचार किए बिना राष्ट्रभाषा का प्रश्न सुलझ नहीं सकता और प्रतिवादी मान नहीं सकते कि भारत की राष्ट्रभाषा संस्कृतनिष्ठ क्यों है। लीजिए वही मार्कंडेय स्पष्ट घोषणा करते हैं-
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