२६० राष्ट्रभाषा पर विचार इस छंदा सों नज्म होर नस मिला कर जुला कर यों नहीं बोल्या । (पृष्ठ ११) और हिंदुस्तानी' का प्रयोग उसने किया भी है तो निवासी के अर्थ में ही । जैसे नजर की माँ थी हिंदुस्तानी, स्याह पेशानी; बाप था तुर्किस्तानी । (पृष्ठ ८६, अंजुमन तरक्की उर्दू, दिल्ली, सन् १९३२) अस्तु, 'सबरस' के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि 'हिंदुस्तानी किसी जवान का प्रचलित नाम है और हिंदी नाम से 'दक्षिण' में भी अधिक व्यापक है। हमारी धारणा तो यह है कि ठेठ देशी जनता में वह चाहे. जितना चालू रहा हो पर दक्षिण के मुसलमान प्रायः हिंदी जबान' का ही प्रयोग करते थे। इसी से तो मद्रास के मौलाना बाकर आगाह का भी कहना है- और हिंदुस्तान मुद्दत लग ज़बान हिंदी कि उसे ब्रजभाषा बोलते हैं रवाज रखती थी । ( मदरास में 'उर्दू' अदवियात उर्दू, हैदराबाद दकन, १६३८ पृष्ठ ४७) मौलाना बाकर आगाह के विचारों का उल्लेख 'मुसलमान' में पर्याप्त हो चुका है अतएव यहाँ इतना ही कह कर संतोष करते हैं कि उनके प्रिय शिष्य 'नामी' की दृष्टि में भी 'ठेठ हिंदी' कुछ और हो थी ! कहते हैं- है इस मसनवी की ज़बाँ रेखता, अरब और अजम से है श्रामेखता। नहीं सिर्फ उर्दू मगर है अयाँ, ज़बाने सुलैमान हिंदोस्ताँ । । अगर बोलता ठेठ हिंदी कलाम, तो भाका था वह पुरबियों का तमाम । जवाने दकन में नहीं मैं कहा, कि है वह जबाँ भी निपट बेमजा ।। (वही पृष्ठ ७५)
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