हिंदुस्थानी का भँवजाल २६१ रेखता' और 'उर्दू' के इस पुजारी ने 'ठेठ हिंदी और दक्खिनी को किस दृष्टि से देखा है इसे आप भी देख सकते हैं, परंतु इसके में जो वृत्ति काम कर रही है वह सहसा आप के सामने नहीं हो सकती । बला का उसका परदा है। तो भी इतना तो समझ ही लें कि मुहम्मदशाह 'रंगीला' के शासन (१७४४-५) में जो उर्दू ईजाद हुई तो देश में देशी हिंदी का घोर विरोध हुआ और लोग परदेशी मुगली याने उर्दू के हो रहे ! यहाँ तक कि ठेठ हिंदी में रचना करना हिंदू होना ससझा गया और हिंदी के प्रसिद्ध सूफी कवि 'नूरमुहम्मद' को विवश हो शपथ खाकर कहना ही पड़ा-- जानत है वह सिरजन हारा, जो कछु है मन-मरम हमारा। हिंदू-मग पर पव न राखेउँ, का ओं बहुतै हिंदी भाखेउँ । मन इसलाम ससलक माँजउँ, टीन जैबरी करकन भाँजे। (अनुराग बाँसुरी, साहित्यसम्मेलन, प्रयाग पृष्ठ ५ ॥ 'अनुराग-बाँसुरी' की रचना सन् १९७४ हिजरी में हुई थी और हुई थी 'पूरबी हिंदी में। 'पूर्वी हिंदी या अवधी' में ही सूफियों (कवियां) की रचना विशेषरूप से मिलती है। इसलिए सन् १२०० हिजरी में 'नामी' ने जब 'ठेठ हिंदी' का नाम लिया तत्र उनके सामने 'पूरबी' लोग ही आये । 'पूरब' के लोग उर्दू में किस दृष्टि से देखे जाते हैं इसे स्वयं उर्दू के भीतर लखनऊ की उर्दू को लेकर देखा जा सकता है। निदान हमारा कहना यह है कि हिंदी का विरोध एक निश्चित दिन और निश्चित तिथि और निश्चित मुहूर्त से निश्चितरूप में किया जाने लगा, और उसमें रचना करना 'हिंदू' होने का अपराध समझा गया। इसके कुछ दिन पहले सन् १९६४ हिजरी में 'तारीखा गरीबी' के लेख्नक ने भी 'हिंदी रचना की तो बड़े से बड़ों की दुहाई दी, यहाँ तक कि स्वयं 'कुरान मजीद' की नजीर दी । वह बड़े परिताप के साथ लिखता है--
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