पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काग्रेसके सामने सवाल ८९ माँगना नही, रिआयते माँगना था; उस समय काग्रेस आजादी नहीं, बल्कि नौकरियाँ माँगा करती थी। उस समय नाममात्रके अधिकारके रूपमे भी कोई ऐसी चीज हमलोगोके हाथमे नही थी जिसके लिए हमलोग आपसमे लड़ सकते । काग्रेसका उस समयका उद्देश्य था विदेगी साम्राज्यको मातहतीमे कुछ अधिकार या रियायते मॉगना । यह रियायते थी विदेशी साम्राज्यकी मशीनरीमे कल पुर्जे वननेकी इच्छा या नौकरी पानेकी इच्छा । यदि हम सूक्ष्म रूपसे देखे तो इस नौकरी मांगनेकी इच्छामें भी आजादीकी एक कायर और सोयी हुई इच्छा थी। आजादी नहीं नौकरियाँ उस समय काग्रेसकी अपील थी हम तुम्हारे गुलाम तो है, परन्तु हमे अपनी इच्छासे ही गुलामी करने दो । अपनी इच्छासे गुलामी करनेका या विदेशी साम्राज्यकी नौकरी करनेका अधिकार माँगनेकी योग्यता हमारे देशकी सर्वसाधारण जनतामे नही थी। इसके लिए वे ही लोग उपयुक्त थे और इसका स्वप्न वे ही लोग देख सकते थे जो विदेशी साम्राज्यकी शिक्षा-दीक्षा काफी हदतक प्राप्त कर चुके थे और विदेशी नौकरशाहीके सम्पर्कमे आते रहते थे। यह लोग थे हमारे उच्च शिक्षा प्राप्त वडे लोग या वकील, डाक्टर, एडिटर, इत्यादि या कुछ बहुत बडे-बडे व्यापारी । इन लोगोने वहुत आजिजी और नम्रतासे एक आवाज उठायी-जिसे इनसे नीचे परन्तु सर्वसाधारणसे बहुत ऊँचे लोगो और श्रेणियोने सुना और इस अावाजमे कुछ अपनापन और कुछ अपने स्वार्थकी प्राप्तिकी गन्ध उन्होने पायी और वे लोग भी पतंगोकी तरह काग्रेसके आशाके प्रकाशके लैन्पके चारो ओर मँडराने लगे। उस समय प्रतिवर्ष काग्रेस होती थी, परन्तु जनसाधारणको उसके अस्तित्वका भी ज्ञान नही था । उस समय काग्रेसकी राजनीति जनताको राजनीति न थी। न जनता उसे समझती थी और न जनताको वह राजनीति समझानेकी जरूरत ही समझी जाती थी। स्वराज्यका नारा कांग्रेसकी यह आवाज और भावना आहिस्ता-आहिस्ता मध्यम श्रेणीतक पहुँची, जो कि विदेशी साम्राज्यकी उन रियायतोसे सन्तुष्ट नहीं हो सकती थी, जिन्हे ऊँची श्रेणीके लोग माँग रहे थे और जो केवल गिनेचुने आदमियोके लिए ही हो सकती थी। यह मध्यम श्रेणीके नागरिकलोग रियायतोकी अपेक्षा ऐसे अधिकार चाहते थे जिनके लिए शासनके अधिकारोकी जरूरत थी। इस श्रेणीके नेता वालगगाधर तिलक थे। उन्होने आकर अग्रेजोके हाथसे शासन माँगनेका प्रश्न उठाया और पहले-पहल 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' की आवाज उठायी। इस आवाजने राष्ट्र के शरीरमे एक स्फूर्ति पैदा कर दी परन्तु यह अावाज भी जनसाधारणकी नही थी। यह आवाज थी जनताके उस अगकी, जो कार्यमे छोटे-मोटे भाग लेता आया था और विदेशी साम्राज्यके विधानमे देवस हो गया था। जनताके