पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१२४

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भारतकी स्वाधीनताका प्रश्न १११ है, क्योकि वह इस कामके महत्त्वको अच्छी तरह समझते है और थोडा बहुत उसे करते भी रहते है । इस ओर उन्हे लगनसे लग जाना चाहिये । जनताको आर्थिक कार्यक्रमके आधारपर संगठित करना और उसमे राजनीतिक जागृति उत्पन्न करना परम आवश्यक है। इस समय किसीका भी निश्चेष्ट रहना अात्महत्याके समान है । निश्चेष्टता मृत्यु है। जो अपनेको क्रान्तिकारी कहता है वह इस आसरे चुप बैठा नहीं रह सकता कि मेरा तो अभी नम्बर ही नही आया और यह सोच नहीं सकता कि सत्याग्रहके सिवाय कोई दूसरा कार्य ही इस समय क्या है। ऐसी दूपित मनोवृत्ति बहुधा देखनेमे आती है । हम सवको इससे बचना चाहिये ।' भारतकी स्वाधीनताका प्रश्न इस लेखमालाकी प्रस्तावनामे हमने यह दिखलानेकी कोशिश की थी कि सच्चे जनतन्त्रकी स्थापनाके लिए क्रान्ति आवश्यक है, क्योकि इसी प्रकार जनसमूहकी दीक्षा होती है और क्रान्ति तभी सम्भव है जव साम्राज्यशाहीके लिए सकटकी अवस्था उत्पन्न हो और जनता उस अवसरने लाभ उठानेके लिए तैयार हो । हमने सक्षेपमे यह दिखलानेकी चेष्टा की थी कि पूंजीवादी पद्धतिका ह्रास होता जाता है और उसपर संकट वार-बार आयेगे और इस तरह क्रान्तिके लिए अवसर भी मिलते रहेगे। सच तो यह है कि पूंजीवादी पद्धतिकी असगतिके कारण ही युद्ध अनिवार्य हो गये है । पूंजीवादियोके लिए सर्वप्रधान चीज मुनाफा है । जो लोग अस्त्र-शस्त्रका व्यापार करते हैं वह युद्धजीवी होते है। इनका गुट अन्तर्राष्ट्रीय क्रान्तिको कायम नही रहने देता। दो राष्ट्रोमे युद्ध भी चलता रहता है और वह एक दूसरेके हाथ अस्त्र-शस्त्र भी वेचते रहते है । पिछले यूरोपीय युद्ध में यही हुआ। १९१४ से १७ तक जर्मनीको हालैण्ड, स्विटरलैण्ड, नार्वे और स्वीडनके जरिये युद्ध-सामग्री वरावर मिलती रही और इसी प्रकार जर्मनी भी, फ्रासको फौलाद भेजता रहा । इतिहास-लेखकोका कहना है कि यदि जर्मनीका अवरोध आरम्भसे ही कडाईसे किया गया होता तो युद्ध चार वर्प न चलता और एक वर्षमे ही कैसरको सुलहके लिए मजबूर होना पड़ता । लेकिन अस्त्र-शस्त्रके व्यापारी युद्धको इतनी जल्दी समाप्त होने देना नही चाहते । इस तरह तो उनका व्यापार ही मारा जाता । थैनिविल जिला, जहाँ जर्मनीके लोहेके कारखाने थे, अरक्षित था और फासीसी सेना इतनी नजदीक थी कि यदि वह चाहती तो उसपर कब्जा कर लेती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, क्योकि ऐसा करनेसे जर्मनीकी फौलादकी पैदावार वहुत कम हो जाती और इसका नतीजा यह होता कि लडाई ज्यादा दिन नही चलती । अनातोले फ्रासको जब यह मालूम हुआ तब उसने कहा कि हम तो विश्वास करते थे कि यह पितृभूमिके लिए प्राणविसर्जन करेंगे, १. 'संघर्ष' २८ अक्तूबर, १९४० ई०