भारतकी स्वाधीनताका प्रश्न ११५ प्रवल होगी तो यह भी बहुत मुमकिन है कि सुलहकी चर्चा उठाकर लड़ाई बन्द कर दी जावें । पूंजीवादी प्रजातन्त्र पूंजीवादी प्रथाको कभी खतरेमे न डालेगा और आज चाहे भले ही वह कह ले कि फैसिस्ट वर्वर और पशु है पर जरूरत पड़नेपर वह इन्हीसे मामिला पटा लेगा लेकिन जनताको उभरने न देगा । हमने पिछले युद्ध और आजके युद्धका यह अन्तर इसलिए वताया जिसमे पाठक यह समझ जायँ कि जनक्रान्तिका कार्य पहलेकी अपेक्षा कुछ कठिन हो गया है । फ्रासकी हार एक प्रकार विना लड़े ही हो गयी । फासके शासकवर्गका नैतिक पतन इतनी तेजीसे हुआ और उसमे देशसे विश्वासघात करनेवाले लोगोका एक ऐसा स्थान था कि किसी दूसरे नतीजेकी उम्मीद ही न हो सकती थी। जिनसे क्रान्तिके नेतृत्वकी आशा की जा सकती थी, वह या तो गृहयुद्ध ( Civil war ) का नारा बुलन्द करनेके कारण राष्ट्रके शत्रुकी कोटिमे आ गये और इसलिए उनका दमन हुअा या उन्होने तूफानके सामने अपनी कमजोरीके कारण सिर झुका दिया। पिछली वार रूसकी सफल क्रान्ति और क्रान्तियोका प्रेरक वनी थी। इस बार उसको आत्मरक्षाके लिए ही पूरी ताकत लगानी पड़ रही है । आज हम दुनियामे आँख पसारकर देखे तो क्रान्तिके केन्द्र नजर न आयेगे । यूरोपमें हिटलरका पातक ऐसा वैठ गया है कि अभी वहाँके लोगोको होश सँभालनेमे कुछ अरसा लगेगा। या तो जव हिटलरकी युद्धमे हार हो या जव आर्थिक संगठन लडाईके बोझको बर्दाश्त न कर सके और छिन्न-भिन्न होने लगे तभी क्रान्ति हो सकती है । एशियामे चीन अवश्य फैसिज्मकी वाढको रोके हुए है और अपनी आजादीकी रक्षाके लिए अपूर्व त्याग और शौर्य प्रदर्शित कर हम सवको प्रेरणा दे रहा है । चीन इसलिए पूर्वी एशियामे आजादी और लोकतन्त्रका हिमायती है। सारा यूरोप हिटलरके सामने झुक गया पर चीन जापानकी फैसिस्ट और फौजी गवर्नमेण्टके आगे न झुका । चीनके वाद हिन्दुस्तान ही एक ऐसा देश है जो कमसे कम साम्राज्यशाही युद्धका प्रतिवाद कर रहा है। अमेरिका जिसने पिछली बार अपने प्रेसिडेण्टके मुखसे एक नयी दुनिया कायम करनेकी वात की थी, आज फैसिज्मका विरोध करके ही सन्तुष्ट है । कुछ प्रगतिशील लोग यह भी कहते है कि सबका प्रधान कार्य प्राज फैसिज्मका विरोध करना है और यही जनक्रान्तिकी तैयारी है। इसमे शक नही कि पूंजीवादी प्रजातन्त्र और फैसिज्ममे गुणकी दृष्टिसे अन्तर है, तथापि यह मानना पडेगा कि साम्राज्यवाद फैसिज्मके मुकावले सफल होकर स्वयं फैसिस्ट रूप धारण कर सकता यदि वह साम्राज्यकी भावनाका परित्याग नही करता। प्रो० लास्कीने अपनी एक हालकी पुस्तकमे यह दिखलानेकी चेष्टा की है कि जबतक ब्रिटेन यूरोपकी क्रान्तिका अग्रदूत नही वनता तवतक वह युद्धमे विजयी नही हो सकता । मेरी रायमे सच्ची नीति यह है कि बाहर हम फैसिज्मका विरोध करे और घरमे प्रतिगामी शक्तियोका । यूरोपके स्वतन्त्र राष्ट्रोसे यह कहना ठीक होगा कि वे फैसिज्मका मुकाबला करे किन्तु पराधीन देशोसे केवल इस गुणकी विभिन्नताके कारण यह कहना कि वे फैसिज्मके विरोधमे साम्राज्य- शाहीका साथ दे गलत होगा। ब्रिटेनकी मौजूदा गवर्नमेण्ट प्रगतिशील नही है और न यह आशा ही है कि वह जल्द प्रगतिशाली बन सकेगी।
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