पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१५२

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लोकतन्त्रकी स्थापनाका मार्ग १३६ कारण असन्तोप और क्षोभकी समस्याका समाधान करनेके लिए भय और घृणाका वातावरण बनाये रखा जा सकता है और मनुष्यकी विध्वसात्मक प्रवृत्तियोको पुन खुलकर नाचनेका अवसर दिया जा सकता है । यदि दुर्भाग्यवश घटनागोका यह रूप हुआ तो भारतीय सघमे भी उसकी अवाछनीय प्रतिक्रियाएँ हुए विना न रहेगी। किन्तु यदि पाकिस्तानके नेताअोको भारतीय संघमे रहनेवाले अपने भाइयोका कुछ ख्याल हुआ तो वे इस वातका ध्यान रखेगे कि वे जिस राज्यका निर्माण करने जा रहे है वह एक लोकतन्त्रात्मक राज्य होगा, जिसमे सभी व्यक्ति समान नागरिकताका उपभोग कर सकेगे और जहाँ अल्पसख्यकोके हितोकी पूरी तरह रक्षा की जायगी। किन्तु पाकिस्तानी नेता क्या करते है और क्या नहीं करते हमे इसपर निर्भर नही रहना है । वे चाहे जो भी करे, हमारा कर्तव्य स्पष्ट है। हमे इस वातका ध्यान रखना है कि लोकतन्त्रात्मक राज्यका जो चित्र हमारे सामने है वह किसी कारण विकृत न होने पाये। शुदृढ़ राज्यको आवश्यकता यह स्पष्ट है कि हमे एक सुदृढ राष्ट्रीय राज्यका संघटन करना है। अखिल भारतीय काग्रेस-कमेटीकी पिछली वैठकमे सरदार पटेलने इस वातकी अोर सकेत किया था। शायद वे यह सोचते है कि एक शक्तिशाली सेना और नौरकरशाहीके सघटनसे ही इस उद्देश्यकी पूर्ति हो सकती है । सम्भवत वे और दूसरे नेता सोचते है कि हमारे सामने निकट महत्त्वका कार्य यही है, दूसरी चीजोपर वादमे ध्यान दिया जा सकता है। किन्तु जिस प्रकार आज शान्तिकी स्थापनामे इसलिए वाधा पड रही है कि उसकी बुनियाद लडाईके दौरानमे ही नहीं डाली गयी उसी प्रकार अभीसे यदि लोकतन्त्रकी बुनियाद नही डाली गयी और लोकतन्त्रात्मक प्रक्रियाएँ नहीं अपनायी गयी तो भारतीय संघको सर्वग्रासी अधिनायकतन्त्रवादी राजका रूप ग्रहण करते हुए देखेंगे। शक्तिशाली सेना और नौकरशाहीवाला राज्य, जिसमे नौकरशाहीकी मनोवृत्तिपर नियन्त्रण रखने और शासन-प्रवन्धमे प्रमुख भाग लेनेवाली लोकतन्त्रात्मक सस्थाएँ न हो तो लोकतन्त्रके लिए भारी खतरा सावित होता है । यदि पूँजीवादी हितोको अाज राज्यपर हावी होनेका मौका दिया जाता है तो आगे चलकर इस स्थितिको वदलना सम्भव न होगा। एक ऐसे देशमे जो अनेक जातियो और सम्प्रदायोमे बँटा हुआ है और जिसमे ऊँच- नीचके भेदभावोसे भरी हुई सामाजिक सम्बन्धकी शृखला पायी जाती है, यह और भी आवश्यक हो जाता है कि जनताको पग-पगपर लोकतन्त्रके सिद्धान्तोकी याद दिलायी जाय । लोकतन्त्र अभ्यास और परम्पराकी वस्तु होती है। जवतक हम वर्तमान सामाजिक ढाँचेको सहारा देनेवाले मिथ्या विश्वासो और प्रास्थानोका अन्त न करेगे तबतक हमे अपने देशमे लोकतन्त्रको स्थापनाकी आशा न करनी चाहिये ।