१४२ राष्ट्रीयता और समाजवाद राष्ट्रवादको अपनानेकी शिक्षा मिली है । हमने वरावर यह ध्यान रखा है कि हमारी राष्ट्रीयता आक्रमणशील संकुचित राष्ट्रीयताकी अधोगतिको न प्राप्त होने पाये । अाधुनिक युगमे राष्ट्रीयता अधिक अनुदार होती जा रही है, इसलिए यह और भी आवश्यक हो गया है कि हम पूर्ण सतर्क रहे। १५ अगस्तसे ही यदि उपर्युक्त वाते सही है, तो हमें अपने देशको राजनीतिके नये अध्यायको प्रारम्भ करनेमे देर न करनी चाहिये । १५ अगस्तसे ही इसका श्रीगणेश किया जा सकता है । उस दिन नव-निर्मित सरकारको शोपित एव दलित वर्गों और पिछटी जातियोके लिए आशाका एक नया सन्देश घोपित करना चाहिये जिसमे जनताकी सार्वभौम सत्ताको स्वीकार किया गया हो। उसी दिन हमारे सामाजिक जीवनके नये आधारकी भी घोषणा होनी चाहिये और उसमे सकेत होना चाहिये कि नयी शासन व्यवस्थामे जनताको भाग लेने- देनेके लिए क्या कदम उठाये जा रहे है । किन्तु महज वादोसे ही काम नही चल सकता । नयी सरकारको अपनी लगनका प्रमाण भी देना होगा। घोपणा-मानसे लोगोमे उत्साह नही उत्पन्न हो जायगा जबतक उसके माथ ही हम उस घोपणापर अमल करना भी नहीं प्रारम्भ कर दे। क्या ही अच्छा होता अगर उसी दिन राज्यद्वारा जमीदारी प्रथाकी वास्तविक समाप्तिकी घोषणा हो जाती । गैर-सरकारी संस्थाएँ लोकतन्त्रकी नीव हमे अभीसे डालनी होगी। कोरे वस्तुवादी इस कार्यको उतना महत्त्वपूर्ण नही समझ सकते हैं जितना कि रक्षा-व्यवस्था और एक योग्य सिविल सर्विसका संघटन । किन्तु ये सभी कार्य समान महत्त्वके है और किसीको भी भविप्यके लिए नही टाला जा सकता। यथार्थवादी व्यक्ति तात्कालिक आवश्यकतायोकी अोर विगेप ध्यान देता है और वर्तमान आवश्यकताअोके सामने भविप्यकी उपेक्षा कर देता है। ऐसी यथार्थवादिता व्यक्तिको अवसरवादिताके गड्ढेमे गिरा सकती है । दूसरी तरफ एक विशुद्ध प्रादर्शवादी एक ऐसे भविष्यके चक्करमे जो कभी पानेवाला नहीं है, वर्तमानका वलिदान कर सकता है। किन्तु ऐसा आदर्शवादी जिसके आदर्शकी जडे यथार्थवादमे है, बीचके एक सुनहले मध्यम मार्गको ग्रहण करेगा और भविष्यके साथ वर्तमानके सम्बन्ध- को कायम रखेगा । यथार्थवादी व्यक्ति आदर्शोको हवाई वात कहकर उसका उपहास कर सकता है, किन्तु वह भूल जाता है कि इतिहासकी प्रेरक शक्ति राजनीति और कूटनीति नही वरन् आदर्शोके प्रति विश्वास और उत्कट लगन ही रही है । सार्वभौमिक शिक्षाके विना लोकतन्त्रका निर्माण सम्भव नहीं है। शिक्षा देनेके अतिरिक्त यदि हमे समाजमें लोकतन्त्रीय पद्धतिका प्रसार करना है तो इस कार्यमें हमे सहकारी आन्दोलनसे वढ़कर दूसरी वस्तुसे सहायता नहीं मिल सकती है । इस तरहका सामाजिक संगठन स्थानीय लोगोमे कर्तृत्व शक्तिको बढाता है, सामाजिक कल्याणके लिए समानताके आधारपर लोगोको संघटित करता है और लोकतन्त्रको विकसित करता
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