पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१५८

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हिन्दुस्तान और राष्ट्रमण्डल १४५ रुख आक्रमणात्मक है । अगर हम वास्तवमें तटस्थ रहना और दुनियामें शान्ति तथा प्रगति लाना चाहते है तो हमे अपने पड़ोसी देशोके साथ अनाक्रमण सन्धि करनी चाहिये और दुनियाकी प्रगतिशील शक्तियोके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहिये ।" हिन्दुस्तान और राष्ट्रमण्डल (२) पण्डित नेहरूके प्रति अत्यधिक सम्मान और स्नेह होनेके कारण मैं उनके साथ किसी विवादमे नही पड़ना चाहता, किन्तु कुछ दिन पूर्व उन्होने राष्ट्रमण्डलके प्रश्नपर अपने ब्राडकास्ट-भाषणमे मेरा भी नाम लिया है, अतएव इस अवसरपर उनको तथा जनताको अपना विचार स्पष्ट रूपसे बता देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। नेहरूजीकी कुछ सफाईका तो मुझसे कोई सम्बन्ध नही है । मैं यह जानता हूँ कि राष्ट्रमण्डल कोई महाराज्य नही है और उससे हम जब चाहें सम्बन्ध-विच्छेद कर सकते है । साथ ही अगर हिन्दुस्तान- का राष्ट्रमण्डलमें रहना हितकर मान लिया जाय तो इसमे सन्देह नही कि प्रधान मन्त्रीजीको इस कार्यमे काफी सफलता मिली है । हमारे सामने यह प्रश्न नही है कि राष्ट्र मण्डलकी सदस्यतासे सिद्धान्ततः हमारी स्वतन्त्रतामे वाधा पहुँचती है या नहीं, बल्कि हमें यह देखना है कि क्या उससे हिन्दुस्तानका स्थायी हित होता है और क्या उससे विश्व-शान्ति और प्रगतिमे सहायता मिलेगी? इस कसौटीसे हमे इस प्रश्नपर विचार करना है, किन्तु मुझे अफसोसके साथ कहना पडता है कि सिवाय व्यर्थकी वाते बनानेके पण्डित नेहरूने कभी यह बतानेकी कोशिश नही की कि उससे इन महान् उद्देश्योकी पूर्तिमें किस प्रकार सहायता मिलेगी। मै न तो अलगावकी नीतिका समर्थक हूँ और न मेरे अन्दर किसी जाति-विशेपके प्रति कोई विरोध-भाव ही है । मैं अग्रेजोका बहुत सम्मान करता हूँ और उनकी कुछ विशेषताअोका प्रशसक भी हूँ। मैं संकीर्ण राष्ट्रीयताको इस युगका सबसे बड़ा अभिशाप मानता हूँ। मैं यह भी चाहता हूँ कि जहाँतक हो ब्रिटेनके साथ समझौता और सहयोग भी होना चाहिये । तात्पर्य यह कि अगर मुझे यह विश्वास हो जाय कि वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितिमें राष्ट्रमण्डलके अन्दर ही हिन्दुस्तानका हित-साधन और उद्देश्य-पूर्ति हो सकती है तो मैं निस्सन्देह इसका समर्थन करूँगा, किन्तु अफसोस है कि मुझे प्रधान मन्त्रीजीके हालके भाषणोमे एक भी ऐसी बात नहीं मिली जिससे मेरे विचारमे परिवर्तन हो सके । प्रधान मन्त्रीजीने राष्ट्रमण्डलके प्रश्नपर हालके विवादको विलकुल व्यर्थ कहा है और फिर भी इसपर विधान-परिपद् तथा अखिल भारतीय काग्रेस कमेटीसे विचार करनेका अनुरोध किया है । मुझे अफसोस है कि नेहरूजी इतने महत्वपूर्ण प्रश्नको जरासी वातमे ही खतम कर देना चाहते है । क्या वह नही जानते कि इसी प्रश्नको लेकर हिन्दुस्तानमे २२ वर्षोसे विवाद चल रहा है ? १९०७ की सूरत-काग्रेसमे जिन प्रश्नोंपर फूट पड़ी १. 'संघर्ष' ६ मई, १६४६ ई० १०