पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

! सयुक्त मोर्चा और भारतीय कम्युनिस्ट १५६ है जबतक आप उन नेतामोसे बातचीत नही करते जिनको जनता श्रद्धा और विश्वासकी दृष्टिसे देखती है। किसी और प्रकारसे कार्य करनेका अर्थ होगा महज राजनीतिक निश्चेष्टताका प्रदर्शन । किन्तु हमारे कम्युनिस्ट भाई कभी 'ऊपरसे' सयुक्त मोर्चेकी नीति वर्तते है और कभी 'नीचेसे' । अवस्थाके अनुसार वह सदा अपनी नीतिको बदलते रहते है, किन्तु उनको इसमे विशेप सफलता नहीं मिली है । कांग्रेस और कम्युनिस्ट हिन्दुस्तान के सामने सबसे बड़ा और पहला सवाल पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करना है है विविध वर्गके लोग ब्रिटिश साम्राज्यवादका विरोध करनेके लिए काग्रेसमे सम्मिलित है। इस विरोधके लिए काग्रेस ही प्रधान सस्था है । काग्रेसके अतिरिक्त अन्य साम्राज्य- विरोधी संस्थाएँ भी है, जैसे मजदूर-सभा, किसान-सभा, युवक-सघ, विद्यार्थी-सघ आदि । भारतके कम्युनिस्टोका काग्रेसके प्रति रुख सदा एकसा नही रहा है । यह बार-बार वदलता रहा है। कभी वह काग्रेसमे रहनेके पक्षपाती रहे है, कभी नही । किन्तु एक बातमे उनकी राय कभी नही वदली है; वह काग्नेसको निश्चित रूपसे भारतके पूंजीपतियोकी वर्ग-सस्था मानते है । उनका विचार है कि काग्रेसका नेतृत्व सदैव सगठन और विचार- रौलीकी दृष्टिसे पूंजीवादी रहा है और उसका कार्यक्रम और उसकी नीति पूंजीवादी वर्गके स्वार्थो और हितोका पोपक रही है। इसीलिए उन्होने काग्रेस और उसके नेताअोका महत्त्व कम करनेकी सदा चेष्टा की है। वह जनताको काग्रेसके प्रभाव क्षेत्रसे अलग करना चाहते है। १९२८ का घातक निश्चय सन् १९२८ तक कम्युनिस्ट काग्रेसमे भी काम करते थे और कही-कही उसकी कार्यकारिणी समितिके सदस्य भी थे। उस समय उनकी सख्या बहुत स्वल्प थी। चीनमे भी कम्युनिस्ट वहाँकी राष्ट्रीय सस्था, 'कुप्रोमिताग'मे शरीक थे । अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक सत्ता कायम रखते हुए उन्होने 'कुप्रोमिताग'मे प्रवेश किया था। सनयातसेनकी अनुमतिसे ही यह कार्य हुआ था। इससे कम्युनिस्टोको राष्ट्रीय आन्दोलनको प्रभावित करनेका अच्छा अवसर मिला था । इस नीतिका अवलम्बन करनेसे चीनकी जनतामे कम्युनिस्टोका प्रभाव बहुत बढ़ गया था। साथ-साथ 'कुप्रोमिताग' की नीतिको भी वनाये रखनेमे वह सफल हुए थे। किन्तु सन् १९२७-२८ मे कम्युनिस्टो और दूसरोसे झगड़ा हो गया, वह 'कुप्रोमिताग' से निकाल दिये गये और च्यागकाई शेकने उनको नेस्तनाबूद करना चाहा । चीनके अनुभवके बाद उपनिवेश-सम्बन्धी नीति एकदम वदल गयी और सन् १९२८ मे कम्युनिस्ट इण्टर-नेशनलने यह निश्चय किया कि उपनिवेशोमे राष्ट्रीय सुधारवादी संस्थानोसे किसी तरहकी शिरकत नही हो सकती। इस निश्चयके अनुसार भारतके कम्युनिस्ट भी काग्रेससे अलग हो गये और सन् १९३०-३२ के सत्याग्रह-आन्दोलनोमे