पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/१७८

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संयुक्त मोर्चा और भारतीय कम्युनिस्ट १६५ माना है। किन्तु इसकी क्या गारण्टी है कि वह इसपर कायम रहेगे ? आज भी वह अपनी स्थिति बदलते नजर आते है । रूस-जर्मन सन्धिके बाद यूरोपमे कम्युनिस्टोने संयुक्त मोर्चेकी नीतिका परित्याग कर दिया है। सोशल डेमोक्रेसी ( Social democracy ) के नेताओके साथ मिलकर अब वे न तो सभी मजदूरोका संयुक्त मोर्चा ( Worker's front ) वनानेके लिए तैयार है और और न कोई राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा ( People's front )। उनकी रायमे “अव मजदूर-वर्गकी एकता और जनताका सम्मिलित मोर्चा केवल 'नीचेसे' ही स्थापित किया जा सकता है ।" यूरोपमे कम्युनिस्ट इण्टरनेशनलकी नीतिमें परिवर्तन होनेके साथ ही अव भारतीय कम्युनिस्टोकी नीतिमे भी तवदीली आ गयी है । जवतक यूरोपमे संयुक्त मोर्चाका जोर रहा तवतक भारतीय कम्युनिस्ट भी संयुक्त मोर्चा और सयुक्त नेतृत्वका नारा लगाते रहे । संयुक्त नेतृत्वको कायम रखनेके वे इस अंशतक पक्षपाती थे कि जव स्वतन्त्रता-दिवसके प्रतिज्ञापत्रमे जोडे गये नये अशोका काग्रेस समाज- वादी पार्टीकी अोरसे विरोध किया गया तो उन्होने हमारी आलोचनाकी खिल्ली उड़ा दी और समूचे प्रतिज्ञापत्रको ग्रहण किया किन्तु आज तो कम्युनिस्टोका प्रमुख कार्य संयुक्त नेतृत्वके स्थानपर केवल मजदूर जमातके नेतृत्वके लिए प्रयत्न करना हो गया है । लडाईकी तैयारीके जमानेमे तो वे गाधीजीके नेतृत्वको आवश्यक समझते रहे, पर आज कम्युनिस्टोका प्रमुख कार्य गाधीवाद नेतृत्वका भण्डाफोड़ करना, जनतापरसे उसका प्रभाव नष्ट करना, जनताको यह समझाना कि रचनात्मक कार्यक्रम केवल अधूरा ही नही है, बल्कि वह मुख्य प्रश्नको बरगलानेके लिए है और जनताका विश्वास गाधीवादी नेतृत्वपरसे हटानेकी कोशिश करना है । इस प्रकार आज कम्युनिस्टोका कार्य गाधीवादके रोधमें भी उसी तीव्रतासे युद्ध करना गया है जितना कि साम्राज्यवादके साथ । अव यह कहा जाने लगा है कि क्रान्ति सन्निकट है । इस अवस्थामे संयुक्त मोर्चेकी नीतिमे परिवर्तन करना लाजिमी है । जनता क्रान्तिकी ओर द्रुत वेगसे अग्नसर हो रही है, नेतृत्व पिछड रहा है, युद्धसे भागता है और समझौता करना चाहता है। अतः इस अवस्थामे 'नीचेसे' ही संयुक्त मोर्चा होना चाहिये, अर्थात् नेताअोकी उपेक्षा कर साधारण सदस्योके साथ संयुक्त कार्य होना चाहिये । हम इस नीतिके थोथेपनको ऊपर दिखा चुके है। भारत एक कृषिप्रधान देश है। ऐगेल्सने ठीक कहा है कि ऐसे देशमे जवतक किसानोमे काफी काम नही किया जायगा और उनका विश्वास नही प्राप्त किया जायगा, कम्युनिस्ट क्रान्ति नही कर सकते । कौन कह सकता है कि हमारे कम्युनिस्ट भाइयोका किसानोपर अच्छा प्रभाव है ? कितने प्रान्तोमे किसान-सभाका ठोस काम है और इनमे भी कितने कम्युनिस्ट कार्यकर्ता है ? वह तो उँगलीपर गिने जा सकते है । मजदूरोमें भी काफी काम नही हुआ है । रेलवेके मजदूर अव भी सुधारवादियोके प्रभाव है। इन आवश्यक क्षेत्रोकी उपेक्षा की गयी है । कार्यकर्ता बहुत कम है, क्षेत्र है विस्तृत । यह समझना कि रूसके क्रान्तिकारियोको परिस्थितिकी जो सुविधाएँ मिली थी वह हमको भी मिलेगी और इसी भरोसे किसी जबर्दस्त कार्यक्रमको वनाना वचपन होगा।