पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२०

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७ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलनका इतिहास निवेशिक स्वराज्यकी स्थापना चाहते थे। वे अंग्रेजी शासनके अनेक लाभोको स्वीकार करते थे और पक्के राजभक्त थे। वे इस वातको मुक्तकण्ठसे स्वीकार करते थे कि अभी भारतीयोंको स्वराज्यकी योग्यता प्राप्त नही हुई है, पर उनका कहना था कि सरकारका यह कर्तव्य है कि धीरे-धीरे शिक्षाका प्रचार कर भारतीयोको अधिकार दे और उन्हें इस वातके योग्य बनाया जाय कि वे अपने देशका शासन स्वयं कर सके । भारतीय सरकारकी नेकनीयतीपर भी आरम्भमे उनको कोई शक नही था। उनका यह भी खयाल था कि इङ्गलैण्डमे भी भारतके लिए आन्दोलन करना अत्यावश्यक है। बगालके कई जिलोमे तथा उत्तरी भारतकी कई जगहोमे 'इण्डियन एसोसियेशन' की शाखाएँ स्थापित की गयी। इङ्गलैण्डमे समय-समयपर डेपुटेशन भेजनेका भी प्रयत्न किया गया। श्री सुरेन्द्रनाथ वनर्जीपर मेजिनीके लेखोंका वहुत प्रभाव पड़ा था । इटलीकी स्वाधीनताका प्रश्न उनके समयमे एक जीता-जागता प्रश्न था । भारतीय एकताका विचार भी उन्होने मेजिनीसे ही सीखा था। भारतके भिन्न-भिन्न प्रान्तोके बीच स्नेह-सम्बन्ध स्थापित करनेका उन्होने उद्योग किया था । बम्बई, पूना और मद्रासकी संस्थाएँ प्रान्तीय थी, लेकिन 'इण्डियन एसोसियेशन' का कार्य केवल वङ्गालप्रान्तमे ही सीमित न था । 'इण्डियन एसोसियेशन' समस्त भारतके लिए एक राजनीतिक सस्थाकी स्थापना करना चाहता था । सन् १८८३ के दिसम्बर मासमें एसोसियेशनकी ओरसे कलकत्तेमे पहली राष्ट्रीय कान्फरेन्स की गयी थी जिसमे मद्रास, वम्बई और संयुक्तप्रान्तके प्रतिनिधि भी सम्मिलित हुए थे और यदि सन् १८८५ में ह्यूम और उनके मित्रोने काग्रेसकी स्थापनाका स्वतन्त्र निश्चय न किया होता तो भी सुरेन्द्रनाथ बनर्जीके उद्योगसे अखिल भारतीय राजनीतिक संस्थाकी प्रतिष्ठा होना निश्चित था । बनर्जीने मेजिनीसे यह भी सीखा था कि बिना अपूर्व त्यागके कोई देश स्वाधीन नही हो सकता और देशके नवयुवकोसे ही अपूर्व त्यागकी आशा हो सकती है, क्योकि उनका हृदय जीवनको कठोरता और कर्कशतासे कलुषित नही हो जाता है और वे आदर्शके लिए अपना सर्वस्व त्याग करनेके लिए भी उद्यत किये जा सकते है । जिस प्रकार मेजिनीने 'यंग इटली' नामक संस्थाकी स्थापना की थी उसी प्रकार वनर्जी महाशयने कलकत्तेमे विद्यार्थियोका एक सघ स्थापित किया । लोकमतको शिक्षित करनेके लिए उन्होने अग्रेजीमे 'वङ्गाली' नामक सामाचार-पत्र भी निकाला । 'इण्डियन एसोसियेशन' भारतीयोके अधिकारोकी रक्षाका निरन्तर प्रयत्न करता था । हमको यह बात ध्यानमे रखनी चाहिये कि ये सव राजनीतिक संस्थाएँ अग्रेजी शिक्षित मध्यम श्रेणीके लोगोकी ही थी। इसलिए वे प्रायः ऐसे ही प्रश्नोको लेकर आन्दोलन किया करती थी जिनका मध्यम श्रेणीके लोगोके स्वार्थ और लाभसे सम्बन्ध था । जब लार्ड सेल्सवरीने सिविल सविसकी परीक्षाके लिए २१ वर्षसे घटाकर १९ वर्षकी उम्रका नियम कर दिया तव इस नियमका इन सव सस्थाअोने समान रूपसे विरोध किया। यह पहला ही अवसर था जब यह स्पष्ट हो गया कि अव भारतमे एक ऐसे वर्गका प्रादुर्भाव हो गया है जिसकी आकाक्षाएँ, जिसकी भावनाएँ एवम् जिसके विचार एक ही प्रकारके है । लार्ड लिटनके शासन-कालमे जब सन् १८७८ मे, 'वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट' पास हुआ