पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२०३

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१६० राष्ट्रीयता और समाजवाद सकता है । वाणीका अनुसरण करनेवाला कार्य ही विशेप हो सकता है । अन्यथा जनतामें संस्थानोकी बहुलताके कारण बुद्धि-विभ्रम होनेका डर है । अगस्त-क्रान्तिके वादसे कही-कही यह भी आवाज सुन पड़ती है कि विचार-धाराकी सर्वथा उपेक्षा कर हमको उन सव शक्तियोंको एकत्र करना चाहिये जो साम्राज्यवादका ध्वंस करना चाहती है । आज जब समाजवाद सर्वत्र सफल या अग्रसर हो रहा है तब उसकी सर्वथा उपेक्षा कर केवल राजनीतिक क्रान्तिकी वात सोचना युगके साथ विश्वासघात करना है । आज यह कहना कि यह मंजिल मध्यम वर्गीय क्रान्तिको है, वडी भारी भूल होगी। आज एक ही क्रान्तिद्वारा हम छलाँग मारकर किसान मजदूरोका राज्य कायम कर सकते है और ऐसा तभी हो सकता है जव हमारे सामने राजनीतिक क्रान्तिके साथ-साथ सामाजिक क्रान्तिका भी ध्येय हो । अधिकसे अधिक क्या सम्भव है और किन साधनोहारा सम्भव है, इसका ज्ञान होना अति आवश्यक है । अन्यथा विदेशी सत्ताके हटनेपर वह विविध शक्तियाँ परस्पर ही लड़ जायेंगी, जिन्होने मिलकर यह कार्य सिद्ध किया है । भविप्यके सम्बन्यमे इनमे कुछ समझौता होना आवश्यक है । यह भी हो सकता है कि दृष्टिके स्पष्ट न होनेके कारण हम सम्भाव्यसे कमपर ही सन्तोप कर ले । किन्तु इस कथनसे यह नहीं समझना चाहिये कि हम सिद्धान्तोकी वहसमे पड़कर शक्तिको खर्च करना चाहते है और एक जीवित आन्दोलनको साम्प्रदायिक सकीर्णतासे पंगु वना देना चाहते है । हम उन लोगोमे भी नही है जो अपनेको एकमात्र क्रान्तिका ठेकेदार समझते है । हमारे मतमे सच्चा मार्क्सवाद कोई अटल सिद्धान्त (Dogma) नही है । जीवनकी गतिके साथ-साथ यह भी बदलता है। इसकी विशेपता इसका क्रान्तिकारी होना है। मार्क्सकी शिक्षामे समयके अनुसार हेरफेर करना तवतक Revisionism नही है जब तक आप इस परिवर्तनसे उसके क्रान्तिकारी तत्त्वोको सुरक्षित रखते है। वर्नस्टीन ( Bernstein ) और काट्स्की ( Kautsky ) Revisionist इसलिए थे कि उन्होने मार्क्सवादके हीरको ही, उसके तत्त्वविशेषको ही निकालकर फेक दिया था । क्या लेनिनने मार्क्सवादकी मूल शिक्षामे परिवर्तन नही किया ? क्या आज जो कुछ कम्युनिस्ट पार्टियां कर रही है, वह मार्क्सवादको बहुतकुछ अंशमें बदलना नही है ? आज उनका सर्वत्र जोर केवल लोकतन्त्रपर है। आज क्या वह अन्य दलोके साथ, चाहे वह समाजवादीसे अन्य भी क्यों न हों, सम्मिलित गवर्नमेण्ट नहीं बना रही है ? यदि है, तो कम्युनिस्टोकी इनमे से कुछ वातोको हम समयकी आवश्यकता समझते हैं । किन्तु कम्युनिस्टोका हमारे प्राचीन भाष्यकारोकी तरह प्रायः ग यह है कि वह सूत्रो को ठीक मानते हुए उनका अर्थ ही बदल देते है । विवादके समय वह मासके सब सिद्धान्तोको यथार्थ सिद्ध करनेका प्रयत्न करेगे, किन्तु उनका आचरण इनमेसे कुछके कभी-कभी विरुद्ध भी होगा और तब भी वह यह स्वीकार नहीं करेंगे कि वह किसी पुराने सिद्धान्तको तोड़ रहे है । धार्मिकोकी प्रवृत्ति ठीक इसी तरहकी होती है । मूलको गलत कहने से उनके धर्मके शाश्वतत्वको हानि पहुँचती है। किन्तु काल मूलमें परिवर्तन चाहता है और इसलिए इनको मूलको विना वदले उसका नया