कुछ गम्भीर प्रश्न २१५ वनकर रह जाती है और असाम्प्रदायिक राज्य और प्रजातन्त्रको दृढ करनमे इससे कोई मदद नहीं मिलती। एक प्रमुख नेताने तो यहाँ तक कहा है कि ईश्वरमे आस्था होना भारतीय संस्कृतिका अविभाज्य अग है। कई लोग इस वातकी सत्यतापर सन्देह करेगे कि ईश्वरपर विश्वास किये विना भी मनुष्य धार्मिक जीवन व्यतीत कर सकता है । दूसरोको इसमे विरोधाभास भले ही लगे, किन्तु भारतके विपयमे यह शब्दश सत्य है । ईश्वरमे आस्था होना भारतीय संस्कृतिका आवश्यक अग नही है । इस देशमे कई ऐसे धार्मिक मतवाद प्रचलित हुए जिन्होने अपने अनुयायियोके लिए ईश्वरके प्रति विश्वासको शर्त नही बनाया। भारतीय सस्कृतिकी मूल प्रात्मा और उसका सार इससे बिलकुल भिन्न है । वह विश्वके नैतिक शासनमे विश्वास करता है । इस स्थलपर इसकी विस्तृत विवेचना असगत होगी, फिर भी ठीक परिस्थितिका स्पष्टीकरण आवश्यक है, क्योकि इसके विना यह भ्रम हो सकता है कि भारतीय संस्कृति अत्यधिक धार्मिक है । कोई भी राज्य अपनी जनताकी सस्कृतिसे अलग नही रह सकता । राज्यका यह प्रधान कर्त्तव्य होना चाहिये कि वह अपनी जनताकी सस्कृतिको दूसरोमे फैलावे और विश्वविद्यालयोके द्वारा भावी सन्ततिके लिए इसकी विरासत देनेका प्रवन्ध करे । हमारी सच्ची संस्कृति भारतीय संस्कृतिके एक 'विद्वान् समर्थक' के कथनका एक ही मतलव हो सकता था कि चुनावमे खडे हुए उसके विरोधी उम्मेदवार नास्तिक और भारतीय सस्कृतिके द्रोही थे। लेकिन जो अपनी संस्कृतिका शत्रु है, वह स्वयका शत्रु है । हमको केवल यह याद रखना है कि संस्कृति जड नही होती; इतिहासके किसी युगमे यदि वह ह्रासोन्मुख होती है तो किसी युग़मे विकासोन्मुख । हमारी सस्कृतिके दो पहलू रहे है । एक व्यक्तिवादी और दूसरा समष्टिवादी अर्थात् विश्वजनीन । अाधुनिक युगमे हमे अपनी सस्कृतिके विश्वजनीन पहलूपर ही जोर देना है । हमे यह भी याद रखना चाहिये कि जब कभी हमने अपनी संस्कृतिके इस पहलूपर ध्यान केन्द्रित किया, भारतका गौरव बौद्धिक और सांस्कृतिक क्षेत्रोमे अत्यधिक बढा । यदि हम विश्वप्रेमकी इस भावनाको, जो मानवमात्रके प्रति प्रेम उपजाती है, फिर अपना ले तो हम अपने देशको उसी उच्च पदपर पहुँचा सकते है । राजनीति और धर्म यही एक तरीका है जिससे हम अपनी संकुचित परिधिसे निकलकर असाम्प्रदायिक ढगपर सोच सकेगे। हम एक ऐसे ससारमे रह रहे है जिसमे क्रान्तिकारी परिवर्तन हो चुके है । हमसे उसका नया तकाजा है । इस नयी परिस्थितिका सामना हम तभी कर सकेंगे जब हममे वही उदारता, सहिष्णुता और मैत्रीभाव हो जो हमारी सस्कृतिकी विशेषता रहे है । भारतीय संस्कृतिका हित हम उसकी कुछ गली-सड़ी परम्पराअोसे चिपके रहकर नही कर सकते । इसके लिए तो हमे उसके सारको ही ग्रहण करना पड़ेगा । सक्षेपमे,
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