पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/२४५

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२३० राष्ट्रीयता और समाजवाद करती है। जनतन्त्रकी सीमाओंको सीमित करनेकी अपेक्षा उत्तरोत्तर विस्तृत करना चाहिये। इस सम्बन्धमे शिक्षाके महत्त्वपर भी जोर देना होगा, क्योकि शिक्षाके माध्यमसे ही राष्ट्रके तरुणोमे प्रजातान्त्रिक तरीकोकी आदते डाली जा सकती है । देगके उन तरुणोको जो ध्वसात्मक सिद्धान्तोके विपैले प्रभावमे आ गये है, पुन. शिक्षाद्वारा इसके दुप्परिणामोसे वचाना है और इसके लिए हमारे शिक्षाकेन्द्रोमे जन-तान्त्रिक विचारो एवं भावोका वातावरण तैयार करना है। इस नये कार्यमे देशके विश्वविद्यालय एक प्रमुख भाग ले सकते है । इन विश्वविद्यालयोको सृजनात्मक विचारोका केन्द्रस्थल बन जाना है, यहाँ अध्येताओंको अपने अध्यापकोके निकट सम्पर्कमे याने पीर निरन्तर विचारोका आदान- प्रदान करनेका अवसर मिले । इसी कारण शिक्षण-सरथायोको देशके जीवन से अलग नहीं रहना चाहिये और इमे मान लेनेमे कोई हिचक नहीं होनी चाहिये कि गौरवपूर्ण पार्थक्यकी नीति निश्चित रूपमे हानिकारक है । वर्तमान समस्याग्रोपर तर्क-वितर्क करनेको प्रोत्साहन मिलना चाहिये और अध्यापकोको देशके सामाजिक और राजनीतिक जीवनमे भाग लेनेका अधिकार मिलना चाहिये। विश्वविद्यालयोको बढते हुए अधिनायकवाद और उसी तरहके सिद्धान्तोके कुप्रभावोसे मोर्चा लेनेमे प्रमुख भाग लेना चाहिये । इन विश्वविद्यालयों- को चाहिये कि वे प्रजातन्त्रको मजबूत वनावे और नवयुवकोको अपने पेशेके लिए ही तैयार न करे वल्कि इसलिए भी कि वे नागरिक कर्तव्योकी पूर्ति कर सके । विश्वविद्यालयोकी शिक्षण-प्रणाली ऐसी हो कि सत्य परीक्षण करनेमे अध्येताअोकी दृष्टि साफ हो और सत्यको ग्रहण करनेमे वे साहसी हो, चाहे वह सत्य प्रिय या अप्रिय हो । शिक्षा तो एक सतत प्रवाह है; ज्ञानको सीमायोका विस्तार हो रहा है । नवीन सत्यो और सिद्धान्तोका उद्घाटन हो रहा है और नये विज्ञानोका विकास हो रहा है। इसलिए, लाजिमी तौरपर यह यावश्यक है कि मस्तिष्कका समय-समयपर परिप्कार होता रहे, जिससे चित्तमे सामाजिक चेतनाका लोप न हो जाय, जिसकी मानव-विकासके लिए अत्यन्त आवश्यकता है । अध्ययनके पाठ्यक्रमोमे विधानके साथ-साथ मानवशास्त्रोका भी समावेश होना चाहिये। अध्येतानोंमे एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करना चाहिये और ऐसा प्रयत्न होना चाहिये कि युवकोके हृदयमे सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्योका महत्त्व घर कर जाय । यहाँपर हमे यह भी नही भूल जाना है कि विज्ञानके विकास और सामाजिक समस्यानोपर उसके प्रयोगसे ही संस्कृतिका समाजीकरण तथा दरिद्रताका निवारण सम्भव हुआ है। प्राचीन समाजमे, जब कि समाजके आर्थिक ढाँचेको मूलतः परिवर्तित करना सम्भव नही था, दयालु लोग, जो दरिद्रों और दलितोकी दशापर द्रवित होते थे, सिर्फ धनीमानी व्यक्तियोसे उनके प्रति उदारता बरतनेकी याचना करके ही रह जाते थे। वह विज्ञान ही है जिसने हमारे लिए उन नवीन मानव-मूल्योको प्रस्तुत किया है, जिनके सहारे हम सामाजिक न्याय एव समता प्राप्त कर सकते है। समाजवाद निश्चय ही एक स्वप्नमात्र रह जाता और एक विश्वव्यापी आन्दोलनका वर्तमान स्वरूप कभी न प्राप्त करता, यदि विज्ञान और शिल्पने बहुलताका युग न ला दिया होता । किन्तु वैज्ञानिक दृष्टिकोणको मानव मूल्योमे